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उपसंहार और भावसाधु का प्रस्ताव
गृह और गृहवास ये भी एक ही विषय हैं, इनमें कुछ भी भेद नहीं दीखता । इसलिये पुनरुक्त दोष क्यों न माना जाय ?
उसे यह उत्तर है कि- यह बात सत्य है किन्तु देशविरति विचित्र रूप होने से एक हो विषय में अनेक परिणाम रहते हैं तथा एक परिणाम के भी भिन्न-भिन्न विषय संभव हो सकते हैं, इसलिये सर्व भेदों का निषेध करने के हेतु विस्तार से कहने की
आवश्यकता होने से यहां पुनरुतत्व नहीं माना जा सकता । ऐसा व्याख्यान की गाथाओं ही से बता चुके हैं । अतएव सूक्ष्मबुद्धि से विचार करके अन्य समाधान ठीक जान पड़े तो, वह भी कर लेना चाहिये।
इस प्रकार दृष्टान्त सहित भावश्रावक के सत्रहों भेदों का प्ररूपण किया। इससे विस्तार पूर्वक भावभावक के भावगत लिंग प्ररूपित हो गये हैं। अब इसका उपसंहार करते हुए दूसरा प्रस्ताव लागू करते हैं।
इय सतरसगुणजुत्तो, जिणागमे भावसावगो भणियो। . एस उण कुसलजोगा, लहइ लहुँ भावसाहुत्तं ॥७॥
मूल का अर्थ-इस प्रकार सत्रह गुण सहित जिनागम में भावश्रावक कहा हुआ है और यह कुशल योग से शीघ्र ही भाव साधुत्व पाता है।
टीका का अर्थ-उपरोक्त प्रकार से सत्रह गुण युक्त जो होवे, वह जिनागम में भावश्रावक माना गया है, और ऐसा होवे तो, यहां पुनः शब्द विशेषणार्थ है। वह क्या विशेषता बतलाता है सो