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नरसुन्दर राजा का चरित्र
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की सूचन देने वाला लेख बांध दिया। अब प्रातःकाल उठकर ज्योंही वह दिशाएं देखने लगा तो चारों ओर उसने सिंह, हरिण, भयंकर वाघों से भरा हुआ वन देखा, तथा उक्त लेख देखा जिससे वह उदास हो कर रानी को इस भांति कहने लगा। ___ हे सुतनु ! अपन जिनको प्रसन्न रखते, खूब दानमान देते, सदैव भारी कृपाओं से अनुग्रहीत करते, अपराध में भी जिनकी
ओर मोठी दृष्टि से देखते, जिनका रहस्य अप्रकट रखते तथा संदेहपूर्ण कार्यों में जिनकी सलाह लेते थे। उन धूर्त सामंत और मंत्रियों की कार्यवाही देख ! इस भांति राजा देवकोप हुआ न मानकर बक - बक करने लगा। तब बंघुमति ने युक्तिपूर्वक कहा कि
हे स्वामिन् ! सकल पुरुषाकार को विफल करने वाले और अघटित घटना घड़ने की इच्छा करने वाले दुर्दैव ही का यह काम है। इसलिये इसकी चिंता करना व्यर्थ है। हे स्वामी ! उदास मत हो ओ । चलो ! हम तात्रलिप्ती नगरी में चलकर नरसुन्दर राजा को प्राति से मिले । राजा ने यह बात स्वीकार की। पश्चात् वे चलते-चलते क्रमशः ताम्रलिप्ती के समीपस्थ उद्यान में आ पहुँचे । अब बंधुमति कहने लगी कि-हे स्वामिन् ! आप यहीं पर थोड़ी देर बैठये, ताकि मैं जाकर मेरे भाई को आपके आगमन का समाचार दे आऊं। किसी प्रकार राजा के हां करने पर बंधुमलि अपने पर भारी ममता बताने वाले भाई के घर आ पहुँची।
वहां उसने महान् सामंतों से सेवित, पास में खड़ी हुई वीरांगनाओं से विजायमान और सेवकों से जय जयकार द्वारा प्रत्येक वाक्य से बधाया जाता हुआ सिंहासन पर बैठा हुआ नरसुन्दर