Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 332
________________ नरसुन्दर राजा का चरित्र ३२३ साथ में रहे हुए परिजनों के शीतोपचार करने से सचेत हुई। तब चिल्लाकर. व्याकुल हो इस भांति विलाप करने लगी। हे हृदय के हार प्रियतम, गुणसमूह के निवास, नमे हुए पर कृपा करने वाले ! किस पापिष्ट ने आपको इस अवस्था में पहुँ. चाया है ? हे नाथ ! वियोग रूप वनाग्नि से भेदते हुए मेरे हृदय को बचाओ। हे हृदय को सुख देने वाले ! इतना विलंब क्यों करते हो ? हे अभागे दैव ! तूने राज्य हरण किया, देश छुड़ाया, हितेच्छुओं से अलग किया तो भो तूं संतुष्ट न हुआ। जिससे और भी हे पापिष्ट ! तू ने यह काम किया । ___ इस प्रकार विलाप करती हुई भाई के मना करने पर भी वह अपने पति के साथ प्रज्वलित अग्नि में कूद पड़ी। .. अब नरसुन्दर राजा निर्वेद (वैराग्य) पाकर चिन्तवन करने लगा कि-जगत् की स्थिति कैसी चित्य और अनित्य है ? जो सुखी होता है, वही क्षण भर में दुःखी हो जाता है। राजा रंक हो जाता है। मित्र होता है सो शत्रु बन जाता है और संपत्ति विपत्ति के रूप में परिणत हो जाती है । किस प्रकार अभी दीर्घ काल में बहिन से समागम हुआ और किस प्रकार पीछा अभी ही वियोग हो गया ? अतः संसारवास को धिकार हो ओ। तीर्थकर जो कि वास्तव में तीनों भवन के लोगों को प्रलय से बचाने में समर्थ होते हैं, उनको भी अनित्यता निगल जाती है। अफसोस ! अफसोस ! रण में सन्मुख खड़े हुए, उद्भट,. लड़ते हुए दुश्मन सुभटों के चक्र को हराने में समर्थ चक्रवत्तॊ भी क्षणभर में मर जाते हैं । तया महान भुजबली बलदेव के साथ मिलकर चालाक प्रतिपक्षी का चूर-चूर करते हैं, ऐसे हरि (वासुदेव)

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