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नरसुन्दर राजा का चरित्र
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को भी कृतान्त रूप हरि (सिंह) हरिण के समान हर ले जाता है । मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हाथी के कान, इन्द्रधनुष और विद्युत की चपलता के द्वारा ये सब वस्तुएं बनाई गई हैं । उसी सेवेक्षण दृष्टष्ट हैं ।
ऐसे संसार में जो परमार्थ जानकर भी विश्वस्त (भोले ) हो कर, अपने घरों में क्षणमात्र भी रहते हैं, उनकी कितनी भारी वृष्टता है ? इस भांति उसने विरक्त होकर धनादिक में संबद्ध होते भी भाव से अप्रतिबद्ध हो, घर रहकर कुछ दिन व्यतीत किये ।
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उसने समय पर राज्य का भार उठाने में समर्थ पुत्र को राज्य सौंप कर श्रोषेण गुरु से दीक्षा ग्रहण को अब वह द्रव्य से वस्त्रादिक में, क्षेत्र से ग्रामादिक में, काल से समयादिक में, भाव से क्रोध, मान, माया, लोभ में प्रतिबंध छोड़कर अनशन करके मन में जिन - शासन को धारण करता हुआ, शरीर में भी अप्रतिबद्ध होकर मर कर ग्रैवेयक देवता हुआ। वहां से उत्तरोत्तर कितनेक भव तक सुरनर की लक्ष्मी का अनुभव करके प्रव्रज्या ले उसने परमपद प्राप्त किया ।
इस प्रकार नरसुन्दर का चरित्र सुनकर हे भव्यों ! जो तुम किसी भारी कारण के योग से शीघ्र दीक्षा लेने में समर्थ न हो सको तो द्रव्य से देह, गेह विषय तथा द्रव्यादिक में सम्बद्ध रहते भी उनमें भाव से भारी प्रतिबंध मत करो ।
इस भांति नरसुन्दर की कथा पूर्ण हुई ।
इस भांति सत्रह भेदों में असंबद्धरूप पन्द्रहवां भेद कहा । अब परार्थ कामोपभोगी रूप सोलहवाँ भेद कहने को कहते हैं
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