Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 334
________________ परार्थकामोपभोग रूप सोलहवां भेद का स्वरूप ३२५ संसारविरत्तमणो भोगुवभोगो न नित्तिहेउत्ति । नाउ पराणुगेहा पवत्तए कामभोएम् ॥ ७५ ।। . मूल का अर्थ-संसार से विरक्त मन रखकर भोगोपभोग से तृप्ति नहीं होती, यह जानकर कामभोग में परानुवृत्ति से प्रवृत्त होवे। टीका का अर्थ- यह संसार अनेक दुःखों का आश्रय है । यथा- 'प्रथम दुःख गर्भावास में माता की कुक्षी में रहने का होता है, पश्चात् बाल्यकाल में मलीन शरीर वाली माता के स्तन का दूध पीने आदि का दुःख रहता है, तदनन्तर यौवन में विरह जनित दुःख रहता है और वृद्धावस्था तो असार ही है। इसलिए हे मनुष्यों ! संसार में जो थोड़ा कुछ भी सुख हो तो कह बताओ?' इसीसे वे संसार से विरक्त मन रखते हैं। ____ भोगोपभोग ये हैं कि-जो एक बार भोगा जाय सो भोग । जैसे कि- आहार, फूल आदि और बार - बार भोगे जाय सो उपभोग । जैसे कि- गृह, शय्या आदि। इस प्रकार आगम में वर्णित भोगोपभोग प्राणियों को तृप्ति के हेतु नहीं हैं, यह समझ कर परानुरोध से अर्थात् पर की दाक्षिण्यता से गंध, रस, स्पर्श में भावश्रावक प्रवृत्त होवे । पृथ्वीचन्द्र राजा के समान । पृथ्वीचन्द्र राजा का चरित्र इस प्रकार है - .. यहां सैकड़ों उपाध्यायों से निरन्तर भूषित अयोध्या नामक नगरी थी । वहां न्यायवन्तों में प्रथम मान्य हरीसिंह नामक राजा था। उसकी नेत्रों के विलास से पद्म को जीतने वाली पद्मावती नामक रानी थी और चन्द्र समान उज्वल यश वाला पृथ्वीचन्द्र नामक पुत्र था।

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