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असंबद्धता पर
टीका का अर्थ - भावना करता हुआ याने विचारता हुआ अनवरत - प्रतिक्षण, समस्त वस्तु याने तन, धन, स्वजन, यौवन, जीवित आदि सर्व भावों की क्षणभंगुरता याने निरन्तर विनश्वरता को विचारता हुआ बाहिर से प्रतिपालन वर्द्धन आदि करता रह कर संबद्ध याने जुड़ा हुआ होते भी धन स्वजन हाथी घोड़े आदि में प्रतिबंध याने मूर्छा रूप संबंध न करे । नरसुन्दर राजा के समान । क्योंकि-भावश्रावक हो, तो इस प्रकार विचारता है । द्विपद, चतुष्पद क्ष ेत्र, गृह, धन, धान्य, ये सत्र छोड़कर एक कर्म के साथ परवश हुआ जीव सुन्दर वा असुन्दर भव में भटकता रहता है ।
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नरसुन्दर राजा की कथा इस प्रकार है ।
उदय, सत्ता और बंधवाली कर्मग्रथ की वृत्ति के समान प्रकटित उदयवाली (आबाइ) बहुविधि सत्ववाली (अनेक प्रकार के प्राणियों वाली), तथापि बंध रहित ताम्रलिप्तो नामक नगरी थी । वहां सम्यक् रीति से परिणत जिन समग्ररूप अमृत रस से विषय रूप विष के बल को नष्ट करने वाला और गृहवास में शिथिल मनवाला नरसुन्दर नामक राजा था। उसकी अति लावण्य और रूपवाली बंधुमती नामक बहिन थी उसका विवाह उज्जयिनी के राजा अवन्तिनाथ के साथ हुआ था ।
वह उसमें अनुरक्त था । मद्यपान में भी आसक्त था और जुआं में भी फंसा हुआ था । इस भांति मत्त रहकर उसने बहुत सा काल व्यतीत किया । इस भांति राजा के प्रमत्त हो जाने पर राज्य नष्ट होने लगा । यह देख राज्य के बड़े-बड़े मनुष्यों ने तथा मंत्रियों ने सलाह करके पुत्र को गांदो पर बैठा कर, मद्य पीकर सोये हुए राजा को रानी सहित अपने मनुष्यों द्वारा उठवाकर अरण्य में छोड़ दिया । और उसके चेलांचल में पुनः वहां न आने