Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 328
________________ असंबंद्धरूप पंद्रहवें भेद का स्वरूप ३१९ ---- -- -- - --- -- --- नरकादिक के भवों में हे जीव ! तूने अनन्त वार जो अतिशय कड़वे दुःख सहे हैं, उनकी अपेक्षा से यह दुःख किस गिनती में है ? यह विचार कर धीरज धर अपने किये हुए कर्म के इन समस्त घोर विपाकों को सहन कर । इस भांति समाधि से वह निश्चल मन से पंच परमेष्टि मंत्र तथा श्री केशि गुरु के सत्प्रसाद तथा उज्वल गुणों को स्मरण करता हुआ मर कर सौधर्म-देवलोक के तिलक समान सूर्याभविमान में सूर्याभ नामक श्रेष्ठ देव हुआ। वहां वह चार पल्योपम तक विपुल सुख भोग कर, वहां से च्यव करके महाविदेह में मुक्ति पावेगा। ___इस प्रकार प्रदेशी राजा का चरित्र सुन गौतम ने प्रसन्न होकर प्रभु को प्रणाम किया और तत्पश्चात् प्रभु अन्यत्र विचरने लगे। इस भांति प्रदेशी राजा का प्रसिद्ध दृष्टान्त जो कि-चतुर मनुष्यों के कानों को अमृत समान पोषण देता है, उसे दोनों कानों से बराबर सुनकर हे मोहाकुल जनों ! तुम कदाग्रह को छोड़कर धर्म विचार में नित्य प्रयत्न पूर्वक मध्यस्थपन धारण करो। __ इस प्रकार प्रदेशी महाराजा का चरित्र पूर्ण हुआ। इस प्रकार सत्रह भेदों में मध्यस्थ रूप चौदहवां भेद कहा । अब असंबद्ध रूप पंद्रहवे भेद का निरूपण करते हैं। भावतो अणवरयं खणभंगुरयं समत्थवत्थूण । संबद्धोवि धणाइसु बज्जइ पडिबंधसंबंधं ॥ ७४ । मूल का अर्थ-समस्त वस्तुएं क्षणभंगुर हैं। ऐसा निरंतर सोचता हुआ धन आदि में संबद्ध (लगा हुआ) होते भी प्रतिबंध का त्याग करे।

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