Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 326
________________ प्रदेशी नृप चरित्र छोड़कर उसके बदले में कलाई उठाई । और जो मूर्ख थे उन्होंने विचार किया कि - लोहा स्वयं उठाया था अतः कैसा छोड़ा जाय यह सोच उसे पकड़ रखा । खेद है कि - कलई न ले सके । ३१७ इस भांति क्रमश: और और खानों में बुद्धिमानों ने चांदी व फिर सोना उठाया, किन्तु जो मूर्ख थे उन्होंने प्रथम उठाया हुआ माल नहीं छोड़ा । अब वे जैसे वैसे रत्न की खानि में आ पहु ंचे । वहां कितनेक मार्गानुसारिणी बुद्धिवाले व हेयोपादेय करने में चतुर मनुष्यों ने सोने को भी छोड़कर अत्यंत गुणवान, निर्मल और त्रासादिक दोष से रहित रत्न ग्रहण किये । किन्तु दूसरों ने साथियों के सलाह देने पर भी कदाभिनिवेश -वश पू में लिये हुए लोहे को छोड़कर रत्न नहीं उठाये | अब वे दोनों अपने देश में आये । वहां रत्न उठाने वालों ने सुख, यश और प्रचुर लक्ष्मी पाई । 1 किन्तु जिन्होंने कदाग्रही होकर पूर्व उठाया हुआ नहीं छोड़ा वे पश्चाताप पाकर सदैव दुःखी रहे। अतएव उनके समान है राजन् ! तू भी इस क्रमागत नास्तिक मत को न छोड़कर पीछे से अतिशय पश्चाताप मत करना । यह सुन मिध्यात्व छोड़कर राजा ने केशि गुरु से सम्यक्त्व के साथ गृहिधर्म स्वीकार किया । अब केशि गणधर कोमलवाणी से राजा को कहने लगे कि हे राजन् ! तू पहिले यथोचित दान देने में रम्य होकर पीछे से उसे बंद करके अरम्य मत होना क्योंकि- इससे हमको अंतराय दोष लगता है तथा शासन की निन्दा होती है। तब प्रदेशी राजा केशि गणधर के उक्त वाक्य को परम विनय से अंगीकार करके अपने पूर्वकृत उलटे सीधे भाषण आदि; अप

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