Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 315
________________ ३०६ चौदहवां भेद मध्यस्थता का स्वरूप बनवाने लगा, सदैव जिन प्रवचन की प्रभावना कराने लगा और विधि के अनुसार अनुकंपादान आदि में भी प्रवृत्त रहने लगा। वह अपने घर के पड़ोस में बनवाई हुई पौषधा-शाला में जाकर पौषध करने में उद्युक्त रहता, तथा सदाचार में प्रवृत्त रहकर धर्मीजनों का अनुमोदन करता। तथा अनेक नय, प्रमाण, गम और भंग से युक्त भारी विचार के भार को सह सकने वाला व पूर्वापर अविरुद्ध उत्तम सिद्धान्त को सुनता था। - इस प्रकार रहते भी वह गृहवास में दुःख मानता था, किन्तु राज्याधिकारी दूसरा न होने से वह राज्य को स्वामी रहित नहीं छोड़ सकता था। जिससे जैसे अल्प पानी में मत्स्य रहता है, वैसे ही वह दुःखपूर्वक गृहवास में रहता था। वह फक्त बहिवृत्ति ही से राज्य और राष्ट्र के कामकाज संभालता था । अन्त में समय पर मृत्युवश हो अच्युत देवलोक में बड़ा देवता हुआ। वहां से च्यवन होने पर महाविदेह में वह राजपुत्र होकर, दीक्षा ले, सर्वत्र अरक्तद्विष्ट रहकर मुक्ति को जावेगा। इस भांति चन्द्र की कान्ति समान चमकते हुए यशवाले ताराचन्द्र महाराजा का चरित्र हर्ष से सुनकर स्वजन, धन, और गृह आदि में अरक्तद्विष्ट रहकर, शिवसुख दाता शुद्ध चारित्र में स्पष्टतः मन धारण करो। इस प्रकार ताराचन्द्र की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार सत्रह भेदों में अरक्तद्विष्टरूप तेरहवां भेद कहा। अब मध्यस्थरूप चौदहवें भेद की व्याख्या करने के हेतु कहते हैं : उवसमसारवियारो बाहिज्जइ नेव रागदोसेहिं । मज्झत्थो हियकामी असग्गहं सव्वहा चयइ ।। ७३ ।।

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