Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 320
________________ प्रदेशी राजा की कथा ३११ वह जो मेरे समान मंत्री मिलने पर भी नरक में जावेगा तो हाय हाय ! मेरी बुद्धि की क्या चतुराई होगी? अतः किसी भी प्रकार से इसे गुरु के पास ले जाऊं। यह विचार कर वह घोड़े फिराने के बहाने से राजा को उद्यान में ले गया । अब राजा दुर्दम घोड़े के तीव्र इमन से थक गया। तब चित्र ने प्रदेशी राजा को विश्रान्ति लेने के लिये वहां बैठाया। जहां कि-समीप ही केशि गुरु विस्तृत सभा में जिन-धर्म समझाते थे । अब सूरि को देख कर राजा चित्र मंत्री को कहने लगा कि-यह मुड उच्च स्वर से क्या चिल्लाता है ? मंत्री बोला कि- मैं भी कुछ नहीं जानता। अतएव समीप चलकर सुने तो अपना क्या जाता है ? इस पर से राजा सुगुरु के पास आया । तब उसे प्रतिबोधित करने में कुशल मतिमान् गुरु बोले कि-हे जनों ! तुम परमार्थ में शत्रु समान समस्त प्रमाद को छोड़कर परमार्थ में पथ्य समान धर्म करो। तब राजा बोला कि तुम्हारा वचन मेरे मन को अधिक प्रसन्न नहीं करता क्योंकि- पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु से पृथक् कोई अन्य परलोक में जाने वाला जीव है ही नहीं । वह इस प्रकार कि-जीव है ही नहीं, क्योंकि वह प्रत्यक्ष नहीं दीखता। गधे के सींग के समान. जो वैसा नहीं सो चार भूत के समान यहां प्रत्यक्ष दीखता है। गुरु बोले कि-हे भद्र ! क्या यह जीव तेरे देखने में आता ही नहीं है इससे नहीं है ? वा सब के देखने में नहीं आता है सो नहीं है ?। इसमें प्रथम पक्ष कुछ योग्य नहीं है। क्योंकि-वैसा हो

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