Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 323
________________ ३१४ मध्यस्थता पर लीन रहती थी। वह आपके अभिप्राय के अनुसार स्वर्ग को गई है, तो वह किसलिये यहां आकर मेरे संमुख नहीं कहती कियहां और परभव में सुख करने वाले धर्म को तू कर । अतः जीव की परभव को जाने की बात किस भांति संगत हो सकती है ? तब अमृतवृष्टि समान बाणी से सूरि बोले : देवों ने अपना कर्तव्य अभी पूरा नहीं किया होगा ? जिससे तथा दिव्य प्रेम में निमग्न हो जाने से तथा विषय में आसक्त हो जाने से तथा मनुष्य के काम के अवश रहने से तथा मृत्युलोक की अशुभता से इत्यादि कारणों से जिनके जन्मादिक कल्याणक, तथा महामुनि के तप की महिमा व समवसरण आदि प्रसंगों के बिना वे यहां प्रायः नहीं आते। राजा पुनः बोला कि, मैं ने एक वक्त एक चोर पकड़ कर उसके अति सूक्ष्म टुकड़े करके देखा, किन्तु उसमें आत्मा कहीं भी नहीं दृष्टि में आई । अतः भूत से पृथक आत्मा को मैं अपने मन में कैसे मान सकता हूँ ? अब छः तर्क दर्शन के कर्कश विचार में कुशल गुरु बोले: अग्नि का इच्छुक कोई मनुष्य विकट वन-वन में भटकता हुआ बड़ा अरणी का काष्ट पाकर, मंदमति होने से उसके टुकड़े करने लगा, किन्तु वहां उसे अग्नि का कण भी देखने में न आया। इतने में कोई महामतिमान् पुरुष वहां आया। उसने उसे शर के साथ घिसकर आग उत्पन्न की। इस प्रकार अग्नि भूत होते भी उसका वहां ग्रहण नहीं होता, तो फिर अमूर्त जीव इस भांति न दीखे तो कौनसा दोष है ? राजा पुनः बोला कि- मैंने एक जीवित चोर को लोहे के संदूक में डाला व उस संदूक को मोम से बन्द कर दिया।

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