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ताराचन्द्र की कथा
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चाहते हो तो, हे भव्यो ! तुम सम्यक-दर्शन रूप दृढ़ पठानवाला शुद्ध भावरूप बड़े-बड़े पटिये वाला, महान संवर से रोके हुए सकल छिद्रों वाला अति मूल्यवान, वैराग्य मार्ग में लगा हुआ, दुस्तप तपरूप पवन से झपाटे बंध चलता हुआ और सम्यक-ज्ञानरूप कर्णधार वाला चारित्र रूप वहाण पकड़ो।
यह सुन राजा निरवद्य चारित्र ग्रहण करने को तैयार होकर आचार्य को कहने लगा कि-राज्य को स्वस्थ करके हे प्रभु ! मैं आपसे व्रत लूगा । मुनीन्द्र ने कहा कि-क्षणभर भी प्रतिबन्ध मत करो। तब राजा प्रसन्न होकर अपने घर आया। __ पश्चात् वह स्वच्छ मतिमान् राजा सकल मंत्री व सामन्तों को पूछकर ताराचन्द्र कुमार को राज्य में अभिषिक्त करने लगा। इतने में विनय से नम्र हुए शरीर से अंजलि जोड़कर कुमार बोला कि-हे तात ! मुझे भी व्रत ग्रहण करने की आज्ञा देकर अनुग्रह कीजिए । क्योंकि-उच्च दुःखरूप तरंगों वाला यह भयंकर अति दुरंत संसार समुद्र चारित्ररूप वहाण बिना पार नहीं किया जा सकता।
तब राजा ने कहा कि-हे वत्स ! तेरे समान समझदार को ऐसा करना उचित ही है, तथापि अभी कुछ दिन तक वंश परंपरा से आया हुआ राज्य पालन कर, पश्चात् न्याय और पराक्रम शाली पुत्र को राज्य सौंप कर, फिर कल्याणरूप लता बढ़ाने को पानी की पनाल समान दीक्षा ग्रहण करना। यह कह कर बलात् उसे राज्य में स्थापित कर, राजा श्री विजयसेन सूरि से दीक्षा लेकर देवलोक में गया ।
अब ताराचन्द्र राजा सदैव व्रत लेने के परिणाम वाला रहकर, प्रतिसमय अधिकाधिक मनोरथ करने लगा। वह जिन मन्दिर