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प्रदेशी राजा की कथा
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मूल का अर्थ-उपशम से भरे हुए विचारवाला हो, क्योंकिवह रागद्वेष में फंसा हुआ नहीं होता, अतः हितार्थी पुरुष मध्यस्थ रहकर सर्वथा असद् ग्रह का त्याग करे।
टीका का अर्थ-उपशम याने कषायों को दबा रखना, इस रीति से जो धर्मादिक का स्वरूप विचारे सो उपशमसार विचार कहलाता है । अब ऐसा किस प्रकार होता सो कहते है :-क्योंकि वह विचार करता हुआ रागद्वेष से अभिभूत नहीं होता । जैसे कि-मैं ने बहुत से लोगों के समक्ष यह पक्ष स्वीकार किया है और अनेकों लोगों ने इसे प्रमाणित माना है । अतः अब स्वतः माने हुए को किस प्रकार अप्रमाणित करू', यह विचार कर स्वपक्ष के अनुराग में नहीं पड़े।
जिससे, "यह मेरा दुश्मन है, क्योंकि यह मेरे पक्ष का दूषक है । अतः इसे बहुत से लोगों में नीचा दिखाऊं"। यह सोचकर भले बुरे दूषण खोलना, गाली देना आदि प्रवृत्ति के हेतुरूप द्वेष से भी अभिभूत नहीं होता किन्तु मध्यस्थ याने सर्वत्र समान मन रखकर हितकामी याने स्वपर के उपकार को चाहता हुआ असद् ग्रह याने असद् अभिनिवेश को सब प्रकार से मध्यस्थ और गीतार्थ गुरु के वचन से प्रदेशी महाराज के समान छोड़ देता है।
प्रदेशी राजा का चरित्र इस प्रकार है :जहां के आराम (बगीचे) सच्छाय (सुन्दर छाया युक्त) सुवयस (सुन्दर पक्षियों युक्त) और वरारोह (ऊ'चे झाड़ वाले) हैं
और जहां की रामा (स्त्रियां) सच्छाय (सुन्दर कान्तिवान् ) सुवयस (सुन्दर वय वाली) और वरारोह (सुन्दर शरीर वाली) हैं।