Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

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Page 313
________________ ३०४ मध्यस्थता पर आया हूँ, और अब श्रावस्ती को जाऊंगा । राज्यचक्र प्रसन्न है। साथ ही देश तथा नगरी भी शान्ति में है । मात्र एक राजा तेरे दुःसह विरह से दुःखित हैं। जब से तू गुम हुआ तब से राजा ने तेरी खोज करने के लिये सब जगह मनुष्य भेजे किन्तु तेरा पता न लगा। इसलिये हे महाभाग ! मैं रत्नपुर आया, सो बहुत ही श्रेष्ठ हुआ कि-जिससे तू एकाएक दैवयोग से मुझे मिल गया । अतः कृपा करके हे नरवर नंदन ! तेरे दर्शन रूप अमृतरस से अति दुःस्सह विरह रूप दावानल से जलते हुए तेरे पिता के हृदय को शान्त कर। इस प्रकार प्रीतिपूर्वक मित्र के प्रार्थना करने पर वह उसके साथ रवाना होकर पिता के सजवाये हुए बाजारों की शोभा वाली श्रावस्ती में आ पहुँचा। उसने पिता को प्रणाम किया। पश्चात् अवसर पा राजा के पूछने पर मूल से लेकर अपना वृत्तान्त कहने लगा। इतने में वहां विस्तृत परिवार के साथ विजयसेन सूरि का आगमन हुआ। तब उनको वन्दन करने के लिये राजा कुमार के साथ वहां आया। .. अब उक्त मुनीन्द्र को नमन करके राजा उचित स्थान पर बैठे तब गुरु मथाते समुद्र के समान उच्च शब्द से धर्मकथा कहने लगे। - यहां जन्म. जरा रूप पानी वाला अनेक मत्सररूप मच्छ-कच्छप से भरा हुआ, उछलते क्रोधरूप बड़वानल की ज्वाला से दुष्प्रेक्ष्य हुआ, मानरूप पर्वत से दुर्गम्य, मायारूप लता के तख्तों से गुथा हुआ, गहरे लोभरूप पातालवाला, मोहरूप चकरियों वाला) अज्ञानरूप पवन से उड़ती हुई संयोग वियोगरूप विचित्र रंग की तरंगों वाला यह संसाररूप समुद्र है। उसको यदि पार करना

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