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मध्यस्थता पर
नरकरूप कुए में पड़े हुए जन्तुओं को खींचते, तथा कनकाचल (मेरु) के समान निश्चल चरणों की अंगुलियों के निर्मल प्रभायुक्त नखों के मित्र से मानो क्षांति आदि दशविध यति-धर्म को प्रकट करते हों ऐसे, पर्वत की गुफा में कायोत्सर्ग से खड़े हुए एक मुनि उसकी दृष्टि में आये। जिससे वह अति प्रमोद से उनके पास गया । और उसने उक्त लब्धि के सागर समान मुनि के कल्पवृक्ष व कामधेनु के माहात्म्य को जीतने वाले दोनों चरणों हर्षित होकर अपना सिर नमाया ।
अब उक्त मुनि के माहात्म्य से वह तुरन्त रोग रहित होकर पूर्व की अपेक्षा अधिक रूपवान हो, विस्मय पाकर मुनि का माहात्म्य देखने के लिये खड़ा रहा। इतने में वहां विद्याधर का जोड़ा (दम्पति) आकाश से उतरा। वह उक्त मुनि के चरणकमलों को हर्षवश विकसित नेत्र रखकर, प्रणाम करके व निर्मल अनेक गुणों की स्तुति करके पृथ्वी पर बैठा ।
तब कुमार ने पूछा कि तुम यहां कहां से व किस काम के लिये आये हो ? तब विद्याधर बोला कि हम वैताढ्य पर्वत से इन मुनिवर को नमन करने आये हैं। कुमार ने पूछा कि ये मुनिवर कौन हैं ? विद्याधर ने उत्तर दिया कि -
इस वैताढ्य में बड़े- बड़े विद्याधरों से नमित और सम्पूर्ण दुश्मनों को नमाने वाला घनवाहन नामक राजा था । वही राजा एक समय जन्म, मरण और रोग के कारण रूप इस भयंकर भव से भयभीत होकर चिरकाल से उगी हुई मोहलता को क्षणभर में उखाड़ कर, जीर्णवस्त्र के समान राज्य को छोड़कर उत्साह से दीक्षा ले ली। वहीं निरन्तर मासक्षमण करते ये मुनिवर हैं। यह कह वे विद्याधर मुनि को प्रणाम करके अपने स्थान को गये ।