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ताराचन्द्र की कथा
पश्चात् हर्षित हृदय से कुमार उक्त मुनि की भक्तिपूर्वक इस प्रकार स्तुति करने लगा ।
विद्याधरों के वृन्द से वंदित चरणकमल' वाले, भवदुः खरूप अग्नि से संतप्त हुए जीवों के ऊपर अमृत की वृष्टि करने वाले, त्रिजगत् को जीतने वाले, कामरूप सुभट के भडवाद को भंग करने में शर व अति उग्र रोगरूप सर्प का गर्व उतारने में गरुड़ समान हे मुनीन्द्र ! आप जयवान रहो ।
इस प्रकार मुनीन्द्र की स्तुति करके ज्यों ही वह कुछ विनंती करने को उद्यत हुआ त्योंही कायोत्सर्ग पूर्ण कर वे मुनिश्वर आकाश मार्ग में उड़ गये। तब विस्मित हुआ कुमार जिनेश्वरों को नमन करके पर्वत से उतरा । वह चलते-चलते क्रमशः रत्नपुर नगर में आया ।
वहां उसके चिरकाल की गाढ़ प्रीति वाले कुरुचन्द्र नामक बालमित्र ने उसे देखा और झट पहचान लिया । जिससे गाढ़ आलिंगन करके उसने उतावल ही में पूछा कि - हे मित्र ! तेरा यहां आना कैसे हुआ ? सो आश्चर्य है। तथा श्रावस्ती से निकल कर इतने समय तक तूने कहां भ्रमण किया है ? तथा अब तू सुन्दर रूपवान किस प्रकार हो गया है ?
तब ताराचन्द्र ने श्रावस्ती से निकलने से लेकर अपना संपूर्ण वृत्तान्त उसे कह सुनाया । पश्चात् कुमार ने भी उसे पूछा कि तू हे कुरुचन्द्र मित्र ! अब तेरा वृत्तान्त कह कि तू कहां किसलिये आया है ? और यहां से कहां जावेगा ? पिताजी कैसे हैं ? सकल राज्यचक्र प्रसन्न है ? श्रावस्ती तथा ग्राम, पुर, देश बराबर शान्ति में हैं ?
कुरुचन्द्र बोला कि - राजा की आज्ञा से इस रत्नपुर में मैं