Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 307
________________ २९८ तेरहवां भेद मध्यस्थता का स्वरूप हे देव ! बहुत से कंडे लाया हूँ तब राजा हंस कर बोला कि तुझे महसूल माफ है । घर जाकर यह माल सम्हाल कर रख व सुखी हो। हे स्वामिन् ! बड़ी कृपा है । यह कह राजा को नमन कर दत्त अपने घर आया और कंडे ठिकाने धरने लगा। पश्चात् उसने विधिपूर्वक उनको जलाये तो उनमें से उसे उत्तम रल मिले । जिससे उसका घर पूर्ववत् लक्ष्मीपूर्ण हो गया। अब वह किसी समय रत्नों से थाल भरकर राजा के पास गया । राजा ने पूछा कि- ये कहां से प्राप्त किये ? तब उसने अपनी बात कही। तब राजा आदि बोले कि-देखो ! इसकी बुद्धि, गंभीरता और पुण्य इत्यादि अनेक प्रकार से प्रशंसा की। पश्चात् किसी समय वह सुयश गणधर से जिनधर्म सुनकर अपना धन सुमार्ग में व्यय कर, व्रत ले सुगति को प्राप्त हुआ। इस प्रकार ऐहलौकिक काम की सिद्धि के लिये यह दृष्टान्त कहा । इसी भांति परलोक के काम की सिद्धि के लिये भी जान लेना चाहिये। __ इस प्रकार मुग्ध जनों के हंसने पर अवधीरणा करने वाले दत्त ने पूर्ण लक्ष्मी पाई । अतः निदोष धर्म क्रिया करते हे भव्य जनों ! तुम मुग्धों की हंसी की कदापि परवाह न करो। इस प्रकार दत्त की कथा पूर्ण हुई । - इस प्रकार सत्रह भेदों में विट्ठीक रूप बारहवां भेद कहा। अब अरक्तद्विष्ट रूप तेरहवें भेद की व्याख्या करने को गाया कहते हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350