________________
चन्दोदर का दृष्टांत
२७९
००
इस प्रकार सत्रह भेदों में आगमपूर्वक सकल क्रिया करे, यह दशवाँ भेद कहा, अब यथाशक्ति दानादिक का प्रवर्तन करे, इस ग्यारहवें भेद की व्याख्या करते हैं ।
अनिगूहिंतो सत्ति आय अवाहाड़ जह बहु कुणइ । आयरइ तहा सुमई दाणाइ चउत्रिहं धम्मं ।। ७० ।।
मूल का अर्थ:-शक्ति गोपन किये बिना आत्मा को बाधा न हो, वैसे अधिक कर के, उस प्रकार सुमतिवान् पुरुष दानादिक चतुर्विध धर्म का आचरण करता है ।
टीका का अर्थ:-शक्ति याने सामर्थ्य का निगूहन याने गोपन किये बिना आत्मा को याने अपने को बाधा याने पीड़ा न हो, उस भांति दानादि चतुर्विध धर्म का चन्द्रोदर राजा के समान आचरण करे । किस प्रकार आचरे सो कहते हैं: - जैसे बहु करे अर्थात् कर सके-सारांश यह है कि अधिक श्रीमन्त हो तो अधिक तृष्णा वाला न होवे और थोड़े धन वाला हो तो अत्यंत उदार न हो - अन्यथा सब पूरा हो जाता है - इसी से सूत्र में कहा है कि:आवक के अनुसार दाता होना आवक के अनुसार खर्च रखने वाला होना और आवक के अनुसार भंडार में स्थापन करने वाला होना चाहिये | जो इस प्रकार करें तो चिरकाल में बहुत दे सकता है । इसी प्रकार शील, तप और भावना में भी समझ लेना चाहिये । इस भांति सुमती अर्थात् पारिणामिक बुद्धि वाला पुरुष दानादिक चतुर्विध धर्म का आचरण करे |
चन्द्रोदर राजा का चरित्र इस प्रकार है ।
हाथी के बच्चों के तूफान वाला ( उपद्रव रहित ) चक्रपुर नामक यहां एक सरस नगर था । उसमें लक्ष्मी से वज्रायुध (इन्द्र)