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बारहवां विहीकता भेद पर
ग्रहण की। वे मुनीश्वर सकल जीवों को अभयदान देते रहकर चिरकाल तक निरतिचार ब्रत पालन करके मोक्ष को पहुंचे।
इस प्रकार तीनों लोक को विस्मित करने वाला चन्द्रोदर राजा का चरित्र सुनकर हे भव्यों ! तुम जिनभाषित दानादिक चार प्रकार के धर्म में प्रयत्न धारण करो।
इस प्रकार चन्द्रोदर राजा का चरित्र पूर्ण हुआ।
इस प्रकार सत्रह भेदों में दानादि चतुर्विध धर्मप्रवत नरूप ग्यारहवां भेद कहा। अब विट्ठीकरूप बारहवें भेद का वर्णन करते हैं।
हियमणवज्ज किरियं चिंतामणिरयणदुल्लह लहिउ।
सम्म समायरन्तो-नय लज्जइ मुद्धहसिओ वि ।।७१॥ मूल का अर्थ-चिन्तामणि रत्न के समान दुर्लभ हितकारी निदोष क्रिया पाकर उसका आचरण करता हुआ मुग्ध जनों के हंसने से लज्जित न हो।
टीका का अर्थ-हित याने इसभव तथा परभव में फायदा करने वाला और अनवद्य याने निष्पाप षड़ावश्यक-जिनपूजा आदि क्रिया को सम्यक रीति से अर्थात् गुरु की कही हुई विधि से समाचरता हुआ याने यथारीति सेवन करता हुआ शरमावे नहीं, यह मूल बात है । क्रिया कैसी सो कहते हैं-चिंतामणि रत्न समान दुर्लभ याने दुःख से प्राप्त हो ऐसी है, उसे पाकर याने प्राप्त करके मुग्ध अज्ञानी लोग हंसे तो भी लज्जित न हो-दस के समान।