________________
चंद्रोदर नृप चरित्र -
२८९
तीसरा धर्मोपग्रह दान अर्थात् आरम्भनिवृत्त साधुओं को अशन तथा वस्त्र आदि देना । सुपात्र दान के प्रभाव से जगत्पूज्य तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव वा मांडलिक राजा होते हैं । जैसे कि घृतदान के बल से भगवान ऋषभदेव सकल जगत् के नाथ हुए। वैसे ही मुनि को भक्त देने से भरत भरतक्षेत्र के अधिपति हुए।
मुनीश्वरों के दर्शन मात्र से भी दिवस भर का किया हुआ पाप नष्ट हो जाता है, तो जो उनको दान देता है, वह जगत में क्या नहीं उपार्जन करता? तथा जहां समभावी मुनि विचरते हों, वह भवन सुपवित्र होता है, क्योंकि कदापि साधुओं के बिना जिन-धर्म प्रगट नहीं होता। इसलिये गृहस्थ ने उनको भक्तिपूर्वक शुद्ध दान देना चाहिये तथा अपनी शक्ति के अनुसार अनुकंपादान तथा उचित दान भी देना चाहिये।
दूसरी बात यह है कि-विषयासक्त गृहस्थों को उत्तम तप वा शील नहीं हो सकता वैसे हो वे सार भी होने से उनको भावना करने का भी थोड़ा ही योग मिलता है, किन्तु उनको दानधर्म करना तो सदा स्वाधीन है।
इस प्रकार हे नरवर ! संक्षेप से तुमे तीनों प्रकार का दान कहा । अब तुझे मुक्तिसुख की लोला देने वाला शील कहता हूँ, सो सुन_शील अपने कुलरूप नभस्थल में चन्द्रमा समान होकर जगत में कीर्चिका प्रकाश करता है, तथा वह सुरनर और शिव के सुख को करता है। अतः सदा शील पालना चाहिये । जाति, कुल, बल, अ त, विद्या, विज्ञान तथा बुद्धि से रहित नर भी निर्मल शीलवान होते हैं तो सर्वत्र पूजनीय हो जाते हैं।