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देववंदन की विधि
एक सौ इक्यासी पद, सत्तानवे सम्पदा, पांच दंडक, बारह अधिकार, चार वन्दनीय, चार शरणीय, चार प्रकार के जिन, चार स्तुति, आठ निमित्त, बारह हेतु, सोलह आगार, उन्नीस दोष, कायोत्सर्ग का मान, स्तोत्र, सात वेला, दश आज्ञातनाओं का त्याग, इस प्रकार चौबीस द्वार से चैत्यवन्दन के २०७४ स्थान होते हैं ।
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दशत्रिक इस प्रकार हैं-तीन निसिही, तीन प्रदक्षिणा, तीन प्रणाम. त्रिविध पूजा, तीन अवस्थाओं की भावना, तीन दिशाओं मैं न देखना, तीन बार भूमि का प्रमार्जन करना, तीन वर्ण, तीन मुद्रा और तीन प्रकार से प्रणिधान ।
घर का व्यापार, जिनघर का व्यापार और पूजा का व्यापार त्यागने सहित तीन निसिही की जाती है। प्रथम अमद्वार पर, दूसरी मध्य द्वार पर और तीसरी चैत्यवन्दन के समय ।
फूल से अंगपूजा, बलि से अग्रपूजा और स्तुति से भावपूजा, इस प्रकार तीन पूजाए' हैं, परिकरस्थ स्नान और अर्चन करने वाले पर से जिनेश्वर की छद्मस्थावस्था जानी जाती है ।
आठ प्रतिहार्य पर से केवली अवस्था जानी जाती है । पर्यकासन और कायोत्सर्ग से सिद्धता जानी जाती है । इस प्रकार तीन अवस्थाएं हैं। तीन वर्ण याने वर्ण, अर्थ और आलम्बन, वहां आलम्बन याने प्रतिमा आदि जानो । तीन मुद्रा अर्थात् योग मुद्रा, जिन मुद्रा और मुक्तासूक्तिमुद्रा है ।
वहां एक दूसरों की अंगुलियां मिलाकर पेडू के ऊपर के कोपरे पर दोनों हाथ धर कर कोशाकार बांधकर खड़ा रहना, सो योग मुद्रा है । पग का अग्रिम भाग चार अंगुल के अंतर पर हो