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गुरुवन्दन के बत्तीस दोष
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उपचार रहित अर्थात् वांदना देते ही अनवस्थित हो जैसे भाटका भांड डालकर चला जाय, वैसे वंदन छोड़कर चला जाय सो अर्पाबद्ध दोष है ।
इकट्ठे हुए सब साधु को एक वांदना से वन्दन करे अथवा वाक्य गचबुच करके वंदन करे, सो परिपिंडित दोष है । टोल ( टिड्डी) के समान उडता हुआ आगे पीछे जाकर वंदन करे, सो दोलगति दोष है ।
अवज्ञा से उपकरण हाथ में पकड़ कर बिठाकर वंदन करे, सो अंकुश दोष है । कह वे के समान रिंगण (गति) करके अर्थात् धीमे-धीमे चलकर वन्दन करे, वह कच्छपरिंगित है । उठता बैठता हुआ पानी में मत्स्य जिस भांति उछलता है उस भांति बलखावे अथवा वहां बैठा हुआ अंग को फिराकर दूसरे को वंदन करे, सो मत्स्योद्वर्श दोष है।
अपने निमित्त अथवा दूसरे के निमित्त अनेक प्रकार से उठने वाला मन का प्रदूष सो मनःप्रद्विष्ट है । पंच वेदिका बांध कर वन्दन करे, सो वेदिकाबद्ध दोष है । भय याने ऐसा न हो कि गच्छ से बाहिर कर दें, सो भय दोष है। वर्तमान में अनुकूल हो अथवा भविष्य में अनुकूल हो ऐसे अभिप्राय से निहोरक देकर वन्दन करे, सो भजंत दोष है । इसी भांति मैत्री के लिये वन्दना करे सो मैत्री दोष है और गारव के हेतु अर्थात् मैं शिक्षा में कैसा विनीत हूँ, ऐसा बताते हुए वन्दन करे सो गारव दोष है ज्ञानादि तीन हेतुओं के अतिरिक्त अन्य जो लोगों को वश करने का कारण, उस हेतु से वन्दन करे सो कारण दोष है । इसी भांति ज्ञानग्रहण करते भी जो पूजा व गारव की अपेक्षा रखे सो कारण दोष जानो । अथवा अभी मैं खूब आदर से वन्दन करूंगा, तो फिर मुझे भी दूसरे इसी प्रकार वन्दना करेंगे । अथवा वन्दन