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आगमानुसारी क्रिया करने पर
मुनि के सिवाय अन्य मुनि में कौन ज्ञानी और सचित्त मनुष्य अपने मन को लगावे ? तब द्वे षगजेन्द्र के सन्निधान से सुलस इस प्रकार बोला कि - हे पिता ! महात्मा पुरुष की निन्दा करते हुए क्या तुम पातक से भी नहीं डरते हो ? सारे विश्व में भी इन मुनि के समान अन्य कोई मासक्षमण करने वाला और निर्दोष पन से सकल तत्व का ज्ञाता है ? हाय हाय ! हे पापी और अभागे ! तू गुणियों की ओर भी राग निवारक मलीन मन धारण करता है तो तेरी जगत् में क्या गति होगी ?
यह सुन अरुणोदय होने पर दीपक के समान वरुण फीका हो कर विचार करने लगा कि, दृष्टिराग के ऐसे भारी विलास को धिक्कार हो । काम राग और स्नेह राग को भव्यजीव रोक सकते हैं किन्तु पापिष्ठ दृष्टिराग तो पांडतों से भी, कठिनता ही से छोड़ा जा सकता है ।
अतः या तो यह कलिकाल का विलसित है अथवा अभी कर्म अनुकूलता से पका नहीं, क्योंकि-सद् आगम के अर्थ में भी जब मनुष्य मूढ़ हो जाता है तब उसीकी अपेक्षा रखता है । क्या जो लोग आगम की बुद्धि छोड़कर अन्य स्थल में तत्व बुद्धि रखते हैं वे वातकी (वाताग्रस्त ) होंगे वा पिशाच को (पिशाचग्रस्त ) वा उन्मत्त (पागल) होंगे ? जो तीथकर प्रणीत आगम भगवान् न हों तो दुषमाकाल से मतिहीन होते भव्यजनों की जगत् में क्या दशा हो ?
अतः इस अन्यायरत पुत्र से अब क्या काम है, तथा इस धन से भी क्या काम है ? मैं तो संग का त्याग करके श्रीमान् आगम ही का अनुसरण करूंगा । यह सोचकर वरुण दीक्षा लेने की इच्छा करता हुआ अपने धन को पात्र में व्यय करने लगा ।