Book Title: Dharmratna Prakaran Part 02
Author(s): Shantisuri, Labhsagar
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 284
________________ वरुण का दृष्टांत २७५ समय उक्त नगर में एक चरक बहुत कठिन तप तप रहा था। उसे नमन करने को महान् हर्ष पूर्वक सर्व लोकों को जाते देखकर सुलस भी कौतुक वश वहां जाकर उनके पैरों पड़ा । अब कुहष्टिराग अवसर देखकर उसके मन में पैठा, जिससे सुलस उक्त चरक को देव, गुरु और पिता समान मानने लगा। वह महा भक्तिवान् होकर, नित्य उसे प्रणाम करने लगा। प्रशंशा करने लगा, और नित्य उसका सेवा करने लगा, और उतने ही मान से अपने को कृतकृत्य मान कर, अन्य काय छोड़ कर उसो में तत्पर हो गया। अव सहागमनिषिद्ध विधि में पुत्र को तत्पर हुआ देखकर , वरुण उस पर करुणा लाकर. उले इस भांति हितोपदेश देने लगा-रागादि सुभटों को जीतने वाले और देवताओं से सेवित जिनेश्वर हो देव हैं। शक्ति अनुसार जिनभाषित आगम की विधि संपादन करने में तत्पर सो गुरु हैं । हे वत्स ! जिसके घर सकल दूषण रहित और समस्त भूषण सहित परम आगम तत्त्व नित्य जानने में आवे, वह मनुष्य अयथार्थदर्शी के बताये हुए पापमय और आगम विधि से विपरीत तत्त्व के अभ्यास में किस प्रकार रंगित हो जाये। हे वत्स ! क्या सरस कमलिनी के पत्र खुलने से उत्पन्न हुई निरतर सुगंध में मग्न रहने वाली हंसिनी कदंब वा नीम के झाड़ पर किसी स्थान में भी बैठेगी ? तथा बादलों में से गिरते हुए मोती समान निर्मल जलबिन्दुओं का पान करने वाला चातक क्या भला मैला समुद्र के पानी पीने की इच्छा करता है १, वैसे हो बहुत से यथोचित पके हुए फलों से भरे हुए आम्रवृक्ष को देखकर तोता कभी पलाश के वृक्ष को ओर लालायित मन रखेगा क्या ? दुस्तप तप करने वाले और समता धारण करने वाले जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350