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चौरासी आशातानाएं
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वह होता है जो कि गंभीर, मधुर शब्द वाला और महान् अर्थ से युक्त हो।
प्रातः के प्रतिक्रमण के समय, जिनमंदिर में जाते, भोजन करते, दिवसचरिम लेते, संध्या के प्रतिक्रमण के समय, सोते व जागते, इस प्रकार मुनि को रात दिन में सात वार चैत्यवंदन करना पड़ता है।
प्रतिक्रमण करने वाले गृहस्थ को भी सात वक्त चैत्यवंदन करना होता है। प्रतिक्रमण न करने वाले को पांच बार करना होता है । जघन्य से तोनों संध्या समय तीन वार तो चैत्यवंदन करना ही चाहिये।
आशातना दश हैं:-ताम्बूल, पान, भोजन, उपानह, मैथुन, शयन, निष्ठीवन, मूत्र, उच्चार और जुआ ये दश आशातनाए जिनेश्वर के गर्भ-गृह में नहीं करना चाहिये।
दूसरे आचार्य तो चौरासी आशातनाएं कहते हैं। यथा१ खेल श्लेष्म, २ क्रीड़ा, ३ कलह, ४ कला, ५ कुललय, ६ तम्बोल, ७ उद्गारना, ८ गाली. ९ लघुनीति वडीनीति करना, १० शरीर धोना, ११ केश, १२ नख, १३ लोही, १४ सेका हुआ धान्य, १५ त्वचा, १६ पित्त, १७ वमन, १८ और दांत डालना, १९ चंपी कराना, २० दमन करे, २१ दांत, २२ आंख, २३ नख, २४ गंडस्थल, २५ नासिका, २६ मस्तक, २७ कान, २८ और सारे अंग का मल डालना, २९ मंत्र, ३० मीलन, ३१ नामा लिखें, ३२ मांग निकालना, ३३ अपना भंडार रखना, ३४ दुष्टासन से बैठना, ३५ गोमय सुखाना, ३६ कपड़े सुखाना, ३७ दाल सुखाना, ३८-३९ पापड़ बड़ी सुखाना, ४० राजादि भय से छिपाना, ४१ आक्रद करना, ४२ विकथा करना, ४३ हथियार