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कुरुचन्द्र नृप कथा
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तब राजा के पण्डितों को उन काव्यों में अच्छा बुरा परखने को पूछने पर वे बोले कि, हे देव ! हम इनमें कुछ भी फर्क नहीं देखते । तथा इनमें जो इन्होंने विक्षिप्तचित्तता बताई है सो स्पष्टतः अजितेन्द्रियपन बताई है, और वह तो अधर्म है, अतः यह विचारणीय है।
यह सुन राजा स्वयं उन काव्यों को विचार कर बोला कि-हे मंत्री ! मैं अब उत्तम धर्म किस प्रकार जान सकूँगा ? मंत्री बोला कि हे नरेश्वर ! यहां अभी जिन-दर्शन के भी मुनि हैं । वे पदार्थ के ज्ञाता, महाव्रत के पालने वाले और महागोप के समान हैं। - वे तृण व मणि, शत्रु व मित्र, तथा रंक व राजा में समान दृष्टि रखने वाले, मधुकर वृत्ति से प्राण वृत्ति करने वाले और धर्मफल के वृक्ष समान हैं। तथा वे जितेन्द्रिय और परीषह तथा कषाय के जीतने वाले होकर स्वाध्याय ध्यान में तत्पर रहते हैं, अतः वे बुलाने पर भी यहां आयेगे वा नहीं सो मैं नहीं जानता। ___ राजा बोला कि हे मंत्रिवर ! उन महा मुनियों को शीघ्र बुला। तब मंत्री ने एक अक्षुद्र बुद्धि वाले क्षुल्लक मुनि को वहां बुलाया उन्हे नमन करके राजा ने कहा कि-हे क्षुल्लक ! क्या तुम काव्य रचना जानते हो ? वे बोले, हां गुरुचरणप्रसाद से जानता हूँ तब कुरुचंद्र राजा ने उनको वह समस्या पद दिया। मुनि ने शृगार रस को छोड कर इस प्रकार समस्या पूर्ति करी।
खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स अज्झप्पजोगे गय माणसस्स । कि मज्झ एएण विचिंतिएणं सकुंडल वा वयणं न वत्ति ।।
क्षात, दांत, जितेन्द्रिय और अध्यात्म योग में मन रखने वाले मुझ को ऐसा सोचने की क्या आवश्यकता है कि उसका वहन कुडल युक्त है वा नहीं।