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अमरदत्त का दृष्टांत
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प्रभावना याने उन्नति सो शक्ति हो तो स्वयं करे । शक्ति न हो तो उसके करने वाले को सहायता करना तथा उसका बहुमान करना तथा वर्णवाद याने प्रशंसा और आदि शब्द से चैत्य बंधवाना, तीर्थयात्रा करना आदि कार्य समझना चाहिये । तथा गुरु अर्थात् धर्माचार्य में विशेष भक्तिवान हो अर्थात् उनकी प्रतिपत्ति करने में तत्पर हो । मतिमान् अर्थात् प्रशस्त बुद्धि धारण करने वाला हो, वह अमरदत्त के समान निष्कलंक दर्शन धारण कर सकता है।
अमरदत्त का दृष्टांत इस प्रकार है :
जैसे रत्नाकर का मध्यभाग विद्र म (प्रवाल) की श्री से परिकलित और अति समृद्धिशाली वहाणों से अलंकृत होता है। उसी भांति विद्रम से परिकलित (जर-जवाहर युक्त) और अति समृद्धिशाली लोगों से सुशोभित रत्नपुर नामक नगर था।
वहाँ बौद्धमत का अनुयायी जयघोष नामक नगरसेठ था । यह जैन मुनियों पर द्वेष रखता था । उसकी सुयशा नामक भायों थी। उनके अमरा नामक कुलदेवी का दिया हुआ अमरदत्त नामक पुत्र था । वह स्वभाव ही से शान्तचित्त था। उसका उसके मातापिता ने प्रथम यौवनकाल ही में जन्म पर्यंत तच्चनिकबौद्ध-मत से वासित हृदय वाले इभ्य की कन्या से विवाह कर दिया।
अब किसी समय वसंत ऋतु में अमरदत्त अपने मित्र के साथ पुष्पकरंड उद्यान में क्रीड़ा करने के हेतु आ पहुँचा। वहां खेलते खेलते उसने वृक्ष के नीचे एक मुनि को देखा। और उनके पास एक पथिक को भी रोता हुआ देखा। तब कौतुक से अमरदत्त