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अमरदत्त का दृष्टांत
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कि-जिनमें कि एक ही वेदना दूसरे मनुष्य के प्राणों ही को हर ले, तथापि यह दृढ़-सत्त्व अपने मन में इस प्रकार विचारने लगा।
हे जीव ! शिवपुर के मार्ग में चलते हुए इस भव रूप अरण्य में मुझे पूर्व में कभी भी नहीं मिले हुए श्री अहंत देव इस समय साथेवाह के रूप में मिले हैं। अतः उनको हृदय में रखकर मरना कल्याणकारी है, और उनको त्यागने से जीवित रहने पर भी अनाथ हो जावेगा ।
हे जीव ! तुमे यह दुःख किस हिसाब में है ? तू ने सम्यक्त्व न पाने से नरक में भटक भटक कर अनन्तों पुद्गल-परावर्त तक दुःख सहे हैं । तथा देवी प्रतिकूल हो जाओ, माता पिता पराङ्मुख हो जाओ, व्याधियाँ शरीर को पीड़ा करा करो, स्वजन सम्बन्धी निन्दा किया करो। आपदाएँ आ पड़ो, लक्ष्मी चली जाओ, किन्तु एक जिनेश्वर में स्थित भक्ति तथा उनके कहे हुए तत्त्वों में तृप्ति ( श्रद्धा ) न जाओ।
इस प्रकार अमरा देवी अवधिज्ञान से उसका दृढ़निश्चय युक्त चित्त देखकर उसके सत्त्वगुण से प्रसन्न हो, उपसर्गों का संहार कर कहने लगी कि-- हे महाशय तू धन्य है, और तीनों लोक में तू ही श्लाघनीय है, कि--जिसकी श्री वीतराग के चरणों में ऐसी दृढ़ आसक्ति है। आज से मुझे भी वे ही देव और वे ही गुरु हैं, तथा हे धीर! तत्त्व भी जो तूने अंगीकृत किया है वही मान्य है। - यह कह उसने संतुष्ट हो अमरदत्त के ऊपर सुगन्ध से मिले हुए भ्रमरों के गुजारव युक्त पाँच वर्ण के फूलों की वृष्टि की। यह महा आश्चर्य देखकर अमरा देवी के वचन से उसके माता