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अमरदत्त का दृष्टांत
तुमे वहां इतनी देर क्यों लगी ? तब उसके मित्रों ने सर्व वृत्तान्त कह सुनाया। __ तब जयघोष ऋद्ध होकर बोला कि अरे अभागे ! तूने कुलागत श्रेष्ठ धर्म का त्याग कर के यह धर्म क्यों स्वीकारा ? अतः यह श्वेताम्बर भिक्षुओं का धर्म छोड़ दे और भिक्षुधर्म करता रह अन्यथा तेरे साथ मुझे बोलना भी उचित नहीं है। ___ कुमार बोला कि-हे पिता! खरे सोने की भांति धर्म भी बराबर परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिये । केवल कुलागतपन ही से धर्म न मानना चाहिये । प्राणीवध, अलीकभाषण, चोरी और परस्त्री का जिसमें पूर्णतः वर्जन है, ऐसा व पूर्वापर अविरुद्ध यह जिन-धर्म है, अतएव वह अयुक्त कैसे कहा जा सकता है ? जैसे व्यापारी ऊचा माल खरीदते हीलना का पात्र नहीं होता वैसे ही मैंने भी उत्तम धर्म को स्वीकार किया है, तो मेरी हीलना करना योग्य नहीं।
यह सुन हठीला सेठ बोला कि-अरे मूर्ख ! तुझे जो रुचे सो कर । आज के बाद तुझे बुलाना उचित नहीं । तथा यह बात सुनकर उसके श्वसुर ने भी कहला भेजा कि-जो मेरी लड़की से तुम को काम हो तो शीघ्र ही जिनधर्म छोड़ देना । अमरदत्त ने विचार किया कि इस जिन-धर्म के सिवाय दूसरा सब अनंत वार पाया हुआ है । यह सोचकर उसने अपनी स्त्री को उसके पिता के घर भेज दी। - एक दिन उसकी माता ने कहा कि हे वत्स ! तुझे अच्छा लगे सो धर्म कर, हम उसमें विघ्न नहीं करते । किन्तु अमरा नामक कुलदेवी की तो तुझे पूजा करना पड़ेगी, क्योंकि-इसी के प्रसाद से तेरा जन्म हुआ है, तब कुमार इस प्रकार बोला