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________________ अमरदत्त का दृष्टांत २३७ प्रभावना याने उन्नति सो शक्ति हो तो स्वयं करे । शक्ति न हो तो उसके करने वाले को सहायता करना तथा उसका बहुमान करना तथा वर्णवाद याने प्रशंसा और आदि शब्द से चैत्य बंधवाना, तीर्थयात्रा करना आदि कार्य समझना चाहिये । तथा गुरु अर्थात् धर्माचार्य में विशेष भक्तिवान हो अर्थात् उनकी प्रतिपत्ति करने में तत्पर हो । मतिमान् अर्थात् प्रशस्त बुद्धि धारण करने वाला हो, वह अमरदत्त के समान निष्कलंक दर्शन धारण कर सकता है। अमरदत्त का दृष्टांत इस प्रकार है : जैसे रत्नाकर का मध्यभाग विद्र म (प्रवाल) की श्री से परिकलित और अति समृद्धिशाली वहाणों से अलंकृत होता है। उसी भांति विद्रम से परिकलित (जर-जवाहर युक्त) और अति समृद्धिशाली लोगों से सुशोभित रत्नपुर नामक नगर था। वहाँ बौद्धमत का अनुयायी जयघोष नामक नगरसेठ था । यह जैन मुनियों पर द्वेष रखता था । उसकी सुयशा नामक भायों थी। उनके अमरा नामक कुलदेवी का दिया हुआ अमरदत्त नामक पुत्र था । वह स्वभाव ही से शान्तचित्त था। उसका उसके मातापिता ने प्रथम यौवनकाल ही में जन्म पर्यंत तच्चनिकबौद्ध-मत से वासित हृदय वाले इभ्य की कन्या से विवाह कर दिया। अब किसी समय वसंत ऋतु में अमरदत्त अपने मित्र के साथ पुष्पकरंड उद्यान में क्रीड़ा करने के हेतु आ पहुँचा। वहां खेलते खेलते उसने वृक्ष के नीचे एक मुनि को देखा। और उनके पास एक पथिक को भी रोता हुआ देखा। तब कौतुक से अमरदत्त
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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