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सम्यक्त्व पर
करके, फिर अनिवृत्तिकरण से अंतरकरण करके मिथ्यात्व की दो स्थितियां करते हैं। वहां अंतर्मुहूर्त प्रमाण की नीचे की स्थिति . का क्षय करके अंतरकरण काल के पहिले समय से शुभभाव में बढ़ता हुआ, जैसे ऊसरप्रदेश अथवा जली हुई भूमि पर लगी हुई वन की अग्नि बुझ जाती है वैसे ही वहां मिथ्यात्व का उदय नहीं होता, तो जीव उपशमसम्यक्त्व पाता है। ,
वहां जघन्य से अंतमुहूर्त बीतकर अंतिम एक समय रहता है, तब और उत्कृष्ट छः आवलिका रहती है तब अनंतानुबंधि उदय पाता है । तब सम्यक्त्व से गिरता हुआ, जब तक मिथ्यात्व गुणस्थान में न पहुँचा हो, तब तक सास्वादन गुणस्थान पाता है, अथवा कोई कोई उपशमसम्यक्त्ववान मिथ्यात्व के तीन पुज करता है।
प्रयोग से मदनकोद्रव के समान परिणामविशेष से, उसके तीन पुज करता है :-शुद्ध, अद्ध शुद्ध, और अशुद्ध । वहां पहिले में प्रवृत्त होने वाला क्षयोपशमसम्यक्त्व पाता है। दूसरे में मिश्र गिना जाता है और तीसरे में मिथ्यात्वी गिना जाता है। मिथ्यात्व की स्थिति अपार्द्ध पुद्गल परावर्त है और सम्यक्त्व की स्थिति छासठ सागरोपम है । मिश्र की उत्कृष्ट स्थिति अंतमुहूर्त जघन्य से सब की ( अंतमुहूर्त स्थिति है ) उपशमसम्यक्त्व पांच वार आता है और क्षयोपशम असंख्य वार आता है।
सम्यक्त्व पाने के अनन्तर पल्योपम पृथक्त्व (दो से नौ पल्योपम ) में देशविरति श्रावक होता है । चारित्र, उपशमश्रोणि और क्षपकोणि का असंख्यात सागरोपम अंतर है । तथा देव बा मनुष्य भव में अपरिपतित सम्यक्त्व हो तो एक भव में भी एक श्रोणि के अतिरिक्त अन्य सब प्राप्त किये जा सकते