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अमरदत्त का दृष्टांत
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हैं और सात आठ भव में मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । अथवा उपशमश्रेणी में उपशमसम्यक्त्व होता है । उसका प्रस्थापक अप्रमत्त यति अथवा अविरत होता है।
चार अनंतानुबंधि, दर्शनत्रिक, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षटक, और पुरुषवेद इतनी प्रकृतियां एकांतरित दो दो समान समान उपशमा । अब क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यक्त्व को जो विशेषता है वह कहते हैं:-उपशम सम्यक्त्वी मिथ्यात्व को प्रदेश से वेदता नहीं। क्योंकि-जो उपशान्त कर्म है, उसे वहां से निकालता नहीं। उदय में लाता नहीं, परप्रकृति में परणमित करता नहीं और उसका उद्वतन भी करता नहीं।
क्षयोपशमसम्यक्त्व कलुष पानी के समान है। उपशम सम्यक्त्व प्रशांत पानी के समान है और क्षायिक सम्यक्त्व निर्मल पानी के समान है । क्षायिक आदि तीन सम्यक्त्व के साथ सास्वादनसम्यक्त्व जोड़े तो उसके चार प्रकार होते हैं और उसमें वेदक जोड़े तो पांच प्रकार के होते हैं। वहां मिथ्यात्व के अंतिम पुद्गल वेदे जाने से वह वेदक सम्यक्त्व कहलाता है। दश प्रकार का सम्यक्त्व इस प्रकार है ।
निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि संक्षेपरुचि और धर्मरुचि । इस भाँति रुचि की अपेक्षा से दश प्रकार का है। क्रियासहित सम्यक्त्व कारक कहलाता है, तत्त्व की रुचि रोचकसम्यक्त्व है । मिथ्यादृष्टि होने पर भी तत्त्व बतलावे उनका नाम दीपक-सम्यक्त्व है।
निश्चय से सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान में रहने वाले विशुद्ध चारित्रधारी को होता है और अविरत को इतर (व्यवहार से)