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दर्शनरूप आठवां भेद का स्वरूप
प्रतिबोधित कर श्रीवीरस्वामी के शिव्य सकलश्रु तनिधान सुधर्मास्वामी से दीक्षा ली । उक्त जम्बू स्वामी युगप्रधान हो कर चिरकाल तक शासन की प्रभावना करके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष को गये ।
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इस प्रकार शिव के समान गृहवास रूप पाश में जो वैराग्य धारण करे, वह कदाचित् यहां चारित्र नहीं प्राप्त कर सके तो भी परभव में निश्चयतः पावे ।
इस प्रकार शिवकुमार की कथा समाप्त हुई ।
इस भांति सत्रह भेदों में गेह रूप सातवां भेद कहा । अब दर्शनरूप आठवां भेद बताते हैं :
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श्रत्थिक भावकलियो पभावणा - वनवायमाईहिं । गुरुभत्तिजुश्री धीमं घरे इय दंसणं विमलं ॥ ६७ ॥
मूल का अर्थ - आस्तिक्यभाव सहित रहे, प्रभावना और वर्णवाद आदि करता रहे और गुरु की भक्तियुक्त होकर निर्मल दर्शन धारण करे ।
टीका का अर्थ - भाव -श्रावक निर्मल दर्शन याने निरतिचार सम्यक्त्व धारण करे, यह मुख्य बात है । वह कैसा होकर करे, सो कहते हैं । देव, गुरु और धर्म में आस्तिक्य रूप जो भाव - परिणाम उनसे युक्त हो अर्थात् जिसको ऐसी दृढ़ श्रद्धा हो कि -जिन, जिनमत और जिनमतस्थित इन तीन को छोड़ कर शेष अखिल जगत् संसार की वृद्धि करने वाला है।