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अर्थ की अनर्थता पर
खरीदी | पश्चात् उसे लेकर वह ताम्रलिप्ति नगरी को ओर जा रहा था। इतने में वह सब रूई बन में लगी हुई अग्नि से जल गई । तब उसे अत्यन्त भाग्यहीन समझ उसके मामा ने भी छोड़ दिया । तथापि वह आशा रखकर पश्चिम दिशा की ओर चला । इतने में उसका घोड़ा मर गया । तब भूखा प्यासा प्रियंगुपुर में पहुँचा ।
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वहां उसके पिता का मित्र सुरेन्द्रदत्त नामक सेठ था । उसके पास से उसने एक लाख द्रव्य व्याज से लिया, और वहां से जहाज पर चढ़ा। उसने यमुना - द्वीप में आकर वहां के नगरों में गमनागमन करके आठ करोड़ सुवर्ण मुद्राए कनाई ।
अब वह अपने देश की ओर आने लगा । इतने में उसका जहाज टूढा । तब वह एक पटिये के सहारे सातवें दिन बड़ी कठिनाई से किनारे आया। वह उंबरवती नामक बंदर पर उतर कर राजपुर के बाहिर के उद्यान में आया । वहां उसे दिनकरप्रभा नामक त्रिदंडी मिला। उसके साथ वह रस प्राप्त करने के लिये पर्वत की बावड़ी की ओर गया। वहां मांची पर बैठकर तुम्बा साथ ले रस्सी द्वारा नीचे उतरा। तब नावे पहुँचते किसी ने चिल्लाया कि - तू कौन है ? तत्र वह बोला कि मैं चारुदत्त नामक वणिक हूँ, और यहां त्रिदंडी ने मुझे उतारा है।
तब वह वणिक बोला कि मुझे भी उसी ने यहां पटका है। यहां मेरा आधा शरीर रस से नष्ट हो गया है, अतः तू अन्दर मत उतर | यह कह कर उसने रस से भरा हुआ तुम्बा दिया । इतने में उस त्रिदंडी ने उसे कटि में बंधी हुई रस्सी के द्वारा ऊपर खींचा। वह समीप आया तब त्रिदंडी ने तुम्बा मांगा, किन्तु उसे कुए से बाहिर नहीं निकाला । तब उनने रस ढोल