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संसारविरक्तता पर
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सकल सुख के हेतु और दुःखसागर के सेतु समान जिन-धर्म से रहित जीवों को चारों गतियों में कहीं सुख नहीं । यह विचार करके श्रीदत्त दीक्षा ले, अनुक्रम से गीतार्थ होकर, एकलविहारी की प्रतिमा पालने लगा। वह एक समय किसी ग्राम के बाहिर रात्रि को स्मशान में स्थिर आंखों से वीरासन द्वारा शुन-ध्यान में खड़ा रहा।
___ इतने में इन्द्र ने प्रशंसा करी कि-जैसे मेरु-पर्वत चाहे जैसे कठिन पवन से हिलता नहीं, व से ही यह श्री इत्तपुनि देवताओं से भी अपने ध्यान से डिगाये नहीं जा सकते। इस पर अश्रद्वा करके एक देवता वहां आया । वह राक्षस का रूप करके उक्त मुनि को सख्त उपसर्ग करने लगा।
सर्प होकर चन्दन वृक्ष के समान उनके सर्वाङ्ग में लिपट कर काटने लगा, वैसे ही हाथी का रूप धर कर सूड से उनको उछालने लगा । तथा उसने उनके चारों ओर प्रचंड ज्वालायुक्त अग्नि सुलगाई तथा प्रचंड वायु द्वारा आक के तूल समान उनको लुढ़काया। पश्चात् ऊट के गले बराबर धूल द्वारा उनको चारों ओर से डाट दिया, फिर उन पर विषम विष वाले बिच्छू डाले। अब वह देवता अवधिज्ञान से मुनि का अभिप्राय देखने लगा, तो वे महान साहसी साधु मन में इस भांति चिन्तवन कर रहे थे। ____ सहन किया है उपसर्ग जिसने ऐसे हे जीव ! यह तेरे सत्व की कसौटी है, क्योंकि स्वस्थ अवस्था में तो प्रायः सभी कोई व्रतपालन करता है, किन्तु उपसर्ग में पालन करता है वही वास्तविक साहसी है।
हे जीव ! तूने पराधीन रहकर इस संसार रूप गहन वन में इससे अनंतगुणी वेदना सही है, परन्तु उससे कुछ भी लाभ