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श्रीदत्त का दृष्टांत
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है तथा विडंबना याने पीड़ा के समान इसमें जीवों के सुर, नर, नरक, तियंच, सुभग, दुर्भग आदि विचित्र रूप होते हैं । इस प्रकार चतुर्गति रूप संसार में सुख सार न होने से असार है। अतएव उसमें श्रीदत्त के समान रति न करे, सो भावश्रावक है।
श्रीदत्त का दृष्टान्त इस प्रकार है ।:वर्षाकाल जैसे बहुशस्य (बहुत घास चारे से युक्त) होता है, वैसे ही बहुशस्य (बहुत प्रशंसनीय ) कुल्लागसंनिवेश में जिनधर्म परायण श्रीदत्त नामक श्रेष्टि कुमार था। ___उसकी स्त्री एक समय एकाएक मर गई । तब वह संसार से विरक्त होकर इस भांति सोचने लगा।
नरक के जीव परमाधार्मिककी, की हुई, परस्पर उदीर कर की हुई, और स्वाभाविक वेदना से पीड़ित हैं, अतः नरक में जीवों को निमेष मात्र भी सुख नहीं ।
तियच, छेदन, भेदन, बंधन और अतिभारवहन आदि दुःखों से सदैव संतप्त रहते हैं, अतः उनको क्या सुख मिलता है ?
. मनुष्य का जीवन टूटे हुए इन्द्रधनुष्य के समान चंचल है, कुटुम्ब का संयोग भारी लहर के समान क्षणभंगुर है । यौवन ताप से तपे हुए पक्षियों के बच्चों के गले के समान चंचल है,
और लक्ष्मी सदैव बिजली की झपक के समान है । इस भांति इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग, रोग और शोक आदि से नित्य दुःखी मनुष्यों को लेशमात्र भी सुख नहीं होता।
भारी अमर्ष, ईर्ष्या, विषाद और रोष आदि से मलीन चित्त देवताओं में भी अति विस्तृत दुःखसंभार उछलता है। इसलिये