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स्वयंभूदत्त की कथा
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हो । तब मुनि को निरीह जान कर गरुड़कुमार अपने स्थान को गया।
इधर स्वयंभूदत्त भी प्रसन्न होकर मुनि से इस प्रकार कहने लगा-हे भगवन् ! भ्रमण करते हुए भयंकर प्राणियों से भरपूर वन में महान पुण्य ही से मुझे यहां आपका योग हुआ है । हे मुनोश्वर ! जो आप महान् करुणावंत यहां न होते तो, मैं अति दुष्ट सपे के विष से मर जाता। अतः विद्याधरों से नमित चरण हे मुनींद्रचंद्र ! मेरे ऊपर कृपा करके मुझे आरंभ और दम से रहित प्रव्रज्या दीजिये।
तब गुरु ने उसे शास्त्रोक्त विधि से दीक्षा दी। बाद वह चिरकाल व्रत का पालन कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ और अनुक्रम से मोक्ष को जावेगा।
इस प्रकार जीवों पर कृपालु और जिनमत में कुशल स्वयंभूदत्त का चरित्र जान कर हे श्रावक जनों! तुम निरारंभभाव में दृढ़ मन रखो और सदैव तीव्रारंभ का परिहार करो।
इस प्रकार स्वयंभूदत्त की कथा पूर्ण हुई। इस प्रकार सत्रह भेदों में आरंभ रूप छठा भेद कहा । अब गेहरूप सातवां भेद का वर्णन करते हैं। गिहवासं पासंपिव ममतो वसइ दुक्विनो तमि । चारित्तमोहणीजं निजिणि उज्जमं कुणइ ॥ ६६ ।।
मूल का अर्थ-गृहवास को पाश के समान मानता हुआ दुःखित होकर उसमें रहे और चारित्र मोहनीय कर्म जीतने का उद्यम करे।