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गृहवास की पाशता पर
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टीका का अर्थ - गृहवास अर्थात् गृहस्थपन को पाश याने फंदे के समान मानता हुआ याने भावना करता हुआ, उसमें दुःखित होकर रहे । जैसे फंदे में पड़ा हुआ पक्षी उड़ सकता नहीं, जिससे उसमें बड़े कट से रहता है । इसी भांति संसारभीरु भावश्रावक भी माता पिता आदि के प्रतिबंध से दीक्षा नहीं ले सकने से शिवकुमार के समान दुःख से गृहवास में रहता है । इसी से वह चारित्रमोहनीय कर्म का निवारण करने के लिये तप संयम में प्रयत्न करता है ।
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शिवकुमार की कथा इस प्रकार है ।
मेघ जैसे सुवन (श्रेष्ठ जल वाला ) होता है, वैसे हो सुवन ( श्रेष्ठ वन वाले ) महाविदेह क्षेत्रांतर्गत पुष्कलावती विजय में बहुत से आनन्दी लोगों से युक्त वीतशोका नामक नगरी थी । वहां सत्य न्याय रूप भ्रमर के रहने के लिये पद्म समान पद्मरथ नामक राजा था । उसकी उत्तम शीलरूप हाथी की शाला के समान वनमाला नामक प्राणप्रिया थी । उनको अतिशय विशिष्ट चेष्टावाला, सदा धर्मिष्ट और शिरीष के फूल समान हाथ पत्रि वाला शिवकुमार नामक पुत्र था ।
वहां कामसमृद्ध नामक सार्थवाह ने त्रिज्ञानी सागरचन्द्र मुनींद्र को मासक्षमण के पारणे पर आहार पानी वहोराया । तत्र उसके घर देवों ने अतुल धनवृष्टि की। यह वृतान्त सुन कर शिवकुमार हृदय में हर्षित होता हुआ, उक्त मुनीश्वर के पास जाकर वन्दना करके उचित स्थान पर बैठा । तब सागरचन्द्र गुरु उसको इस प्रकार धर्म-कथा कहने लगे ।
इस संसार में प्राणी संकल प्रवृत्तियां सुख के हेतु करते हैं, किन्तु सुख तो मोक्ष में ही है और मोन पवित्र चारित्र ही से