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________________ गृहवास की पाशता पर I टीका का अर्थ - गृहवास अर्थात् गृहस्थपन को पाश याने फंदे के समान मानता हुआ याने भावना करता हुआ, उसमें दुःखित होकर रहे । जैसे फंदे में पड़ा हुआ पक्षी उड़ सकता नहीं, जिससे उसमें बड़े कट से रहता है । इसी भांति संसारभीरु भावश्रावक भी माता पिता आदि के प्रतिबंध से दीक्षा नहीं ले सकने से शिवकुमार के समान दुःख से गृहवास में रहता है । इसी से वह चारित्रमोहनीय कर्म का निवारण करने के लिये तप संयम में प्रयत्न करता है । २३२ शिवकुमार की कथा इस प्रकार है । मेघ जैसे सुवन (श्रेष्ठ जल वाला ) होता है, वैसे हो सुवन ( श्रेष्ठ वन वाले ) महाविदेह क्षेत्रांतर्गत पुष्कलावती विजय में बहुत से आनन्दी लोगों से युक्त वीतशोका नामक नगरी थी । वहां सत्य न्याय रूप भ्रमर के रहने के लिये पद्म समान पद्मरथ नामक राजा था । उसकी उत्तम शीलरूप हाथी की शाला के समान वनमाला नामक प्राणप्रिया थी । उनको अतिशय विशिष्ट चेष्टावाला, सदा धर्मिष्ट और शिरीष के फूल समान हाथ पत्रि वाला शिवकुमार नामक पुत्र था । वहां कामसमृद्ध नामक सार्थवाह ने त्रिज्ञानी सागरचन्द्र मुनींद्र को मासक्षमण के पारणे पर आहार पानी वहोराया । तत्र उसके घर देवों ने अतुल धनवृष्टि की। यह वृतान्त सुन कर शिवकुमार हृदय में हर्षित होता हुआ, उक्त मुनीश्वर के पास जाकर वन्दना करके उचित स्थान पर बैठा । तब सागरचन्द्र गुरु उसको इस प्रकार धर्म-कथा कहने लगे । इस संसार में प्राणी संकल प्रवृत्तियां सुख के हेतु करते हैं, किन्तु सुख तो मोक्ष में ही है और मोन पवित्र चारित्र ही से
SR No.022138
Book TitleDharmratna Prakaran Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Labhsagar
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year
Total Pages350
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size21 MB
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