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जिनपालित का दृष्टांत
यह कहने पर भी उन्होंने जब उसे नजर से भी न देखा, तब उसने अवधि से जाना कि जिनरक्षित निश्चय डिग जावेगा । जिससे वह उसे कहने लगा कि हे जिनरक्षित ! तू हमेशा मेरे. हृदय का हार था । तेरे साथ में सच्चे भाव से बोलती खेलती थी । यह जिनपालित तो मुझे सदैव अविदग्ध वणिक के समान जड़ लगता था । वह मुझे भले ही उत्तर न दे, परन्तु तुझे तो वैसा न करना चाहिये । तेरे विरह में मेरा हृदय टुकड़े टुकड़े होकर शीघ्र ही टूट जावेगा । अतः हे जिनरक्षित ! मेरे निकलते हुए प्राण को रख ।
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इस प्रकार रुमकुम करती घुघरियों के शब्द से कानों को प्रसन्न करती हुई, वह ऐसा बोलने के साथ ही उसके सिर पर सुवर्ण के पुष्प बरसाने लगी । अब महान कपटी व्यंतरी का वह रूप देख कर, वे वचन तथा गहनों की रुमकुम सुन कर पूर्व की क्रीड़ाओं का स्मरण कर, तथा सुगंधित गंध सूंघ कर जिनरक्षित शूली पर चढ़े हुए मनुष्य की कही हुई सब बातें भूल गया ।
स्वयं आंखों से देखे हुए, उसके दुःखों की उस अपूर्णमति ने गणना नहीं की । तथा सेलक यक्ष के सुभाषण की भी अवधीरणा की । पश्चात् कंदर्प रूप भील के दीर्घ भाले से बिंधा हुआ वह दुर्भागाजिनरक्षित उस व्यंतरी की ओर देखने लगा । तब उसे विषय में गृद्धचित्त जान कर सेलक ने उसे अपनी पीठ पर से नीचे गिरा दिया | तब उस गिरते हुए दीन का पग पकड़कर "अरे दास ! अब मरा ही है ।" यह बोलती हुई उस व्यंतरी ने 'क्रोध से जलते हुए उसे ऊँचा आकाश में फेंका।
वह ज्योंही वहां से गिरा कि उस पापिणी ने ऊंची तलवार से उसके खंड खंड करके दशों दिशाओं में भूतबलि की । अब