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अर्थ की अनर्थता पर
इसलिये क्या करू? तो भी तू जिन-धर्म अंगीकार कर, जो कि कष्ट में भी भाई के समान मदद करता है । पश्चात् उसने उसको नवकार दिया। फिर रुद्रदत्त ने उसे मार डाला । अब वे दोनों उनकी खाल में घुसे। उन्होंने हाथ में छुरे ले लिये थे । अब पक्षियों ने उनको उठाया, किन्तु आकाश में खाने के लिये वे पक्षी लड़ने लगे, जिससे चारुदत्त नीचे समुद्र में गिर गया । वहां छुरे से खाल को चीर कर, वह उसमें से निकल कर एक पर्वत पर गया। वहां कायोत्सर्ग में खड़े हुए एक मुनि को देख कर उसने वंदन किया।
तब कायोत्सर्ग पार, उसको धर्मलाभ दे, मुनि कहने लगे कि-तू भूचर होकर अगोचर पर्वत पर कैसे आ पहुँचा है ? पुनः मुनि बोले कि-मैं अमितगति नामक विद्याधर हूँ। जिसको कि-तू ने उस समय छड़ाया था। मैं वहां से छूट कर अष्टापद पर्वत के समीप आया, तो मुझे देख कर वह दुश्मन भाग गया। तब मैं अपनी स्त्री को लेकर शिवमंदिर नगर में आया । वहाँ राज्य देकर मेरे पिता ने दीक्षा ली । पश्चात् मेरी स्त्री मनोरमा की कुक्षि से सिंहयश और वाराहग्रीव नामक मेरे ही समान बलविक्रम वाले दो पुत्र हुए। वैसे ही विजयसेना स्त्री की कूख से गंधर्वसेना नामक पुत्री हुई । तदनन्तर राज्य तथा यौवराज्य पुत्रों को सौंप कर मैं प्रवजित हुआ हूँ । यह इस लवणसमुद्र के अन्दर स्थित कुभकंठ द्वीप में कर्कोटक नामक पर्वत है । जिस पर रहकर मैं तप करता हूं । अब तू अपना वृतान्त कह ।
तब चारुदत्त ने भी मुनि को अपना संपूर्णवृतान्त कह सुनाया। इतने में मुनि के दो पुत्र वहाँ आये और उन्होंने मुनि को नमन किया। तब वह महामुनि उनको कहने लगे कि