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मित्रसेन का दृष्टांत
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भ्रमण से मेरे चित्त को भय लगने से उक्त भय को नष्ट करने के लिये हे नरेश्वर ! मैने यह दीक्षा ली है।
यह सुन राजा ने भयंकर भव से अतिशय भयभीत होकर अपने पुत्र चन्द्र को राज्य सौंपकर उपशम का साम्राज्य (प्रवज्या) ग्रहण किया। चंद्र राजा ने भी उक्त राज्यलक्ष्मी से सुशोभित होकर सम्यक्त्व पूर्वक गृहीधर्म अंगीकार किया । पश्चात् वह गुरु चरण में नमन करके अपने स्थान को आया और मुनीश्वर भी परिवार सहित अन्य स्थल में विचरने लगे। ___ एक समय मित्रसेन ने राजा को एकान्त में कहा कि-हे मित्र! तुमे में कुछ अपूर्व विज्ञान बताता हूँ। उसने उत्तर दिया, अच्छा, तो जल्दी बता तब व शृगालों का झन्द इस प्रकार निकालने लगा कि-जिसे सुन शृगाल चिल्लाने लगा।
व उसने मुर्गे का स्वर निकाला कि जिससे मुर्गे बोल उठे और मध्य रात्रि होते हुए भी प्रातःकाल समझकर मनुष्य जाग उठे । व इस प्रकार शृंगार युक्त वाक्य बोला कि हृढ़ शीलवान व्यक्ति को भी काम जाग उठे। . . __तब राजा बोला कि-हे मित्र! इस प्रकार तू अपने व्रत को अतिचार से मलीन मत कर, क्योंकि शीलवान पुरुषों को विकारी वचन बोलना उचित नहीं। ऐसा कहने पर भी जब कुतूहलवश वह शृगार युक्त वाणी बोलते बन्द न हुआ, तब राजा ने उसकी उपेक्षा की।
उसने एक दिन एक स्त्री के सम्मुख, जिसका कि पति विदेश गया था, ऐसे विकारी वाक्य कहे कि जिससे वह तत्काल काम से विव्हल हो गई। उसे ऐसी विकारयुक्त देखकर उसका देवर