________________
जयंती श्राविका का दृष्टांत
१२३
धर्म, अधर्म और लोकाकाश एक जीव के प्रदेश समान हैं। काल द्रव्य एक है, पुद्गल के और अलोक के प्रदेश अनंत है।
प्रमाणद्वार कहा, अब अल्पबहुत्व कहते हैं-- .
काल एक गणना से सबसे अल्प संख्या का हुआ । लोक, धर्म, अधर्म. ये तीनों असंख्यप्रदेशी समान है, पुद्गल और अलोकाकाश ये दो अनन्त प्रदेशी हैं।
अल्पबहुत्व कहा, अब भावद्वार कहते हैं--
धर्म, अधर्म, आकाश और काल पारिणामिक भाव में हैं, पुद्गल औदायिक व पारिणामिक दोनों भाव में हैं और जीव सर्व भावों में हैं । भाव छः हैं-दो प्रकार का औपशामक, नव प्रकार का क्षायिक, अट्ठारह प्रकार का क्षायोपशमिक, इक्कीस प्रकार का औदयिक और तीन प्रकार का पारिणामिक है तथा छठा सांनिपातिक भाव है। पहिले में सम्यक्त्व और चारित्र है, दूसरे में ज्ञान, दर्शन, चारित्र तथा दान, लाभ, भोग-उपभोग, वीर्य और सम्यक्त्व ये नौ हैं।
चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पांच दानलब्धि, सम्यक्तव, चारित्र और संजमासंजम. ये अट्ठारह तीसरे भाव में हैं।
चार गति, चार कषाय, तीन लिंग, छः लेश्या, अज्ञान, मिथ्यात्व, असिद्ध पणु और असंयम ये इक्कीस चौथे भाव में हैं। __पांचवें भाव में जीव, अभव्यता, भव्यता आदि है । इस भांति पांच भावों के त्रेपन भेद हैं। सुख हेतु कर्मप्रकृति पुण्य कहलाता है और दुःख हेतु कर्म प्रकृति पाप कहलाता है। वहां पुण्य के ४२ भेद हैं और पाप के ८२ भेद हैं, वे इस क्रम से हैं--
तियंचायु, सातावेदनीय, उच्चगोत्र, तीर्थकर नाम, पंचेन्द्रिय जाति, बस दशक, शुभविहायोगति, शुभ वर्णचतुष्क, मनुष्य,