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सुमित्र का दृष्टांत
दीप्तिवंत कान्तिवान था और सूर्य के समान असजनों को त्रास देने वाला था। __उसके बसुमित्र नामक निर्धर्मो और गुणहीन व लोहमय चाण के समान परमर्म को वींधने वाला. और कपट-प्रीति धरने वाला मित्र था । वे दोनों किसी प्रकार माता पिता की रजा लेकर बहुत सा माल लेकर देशान्तर को चले।
अब मित्र पर द्वेष रखने वाला व कौशिक-सर्प के समान दोष से भरा हुआ वसुमित्र मित्र के धन में लुब्ध हो मार्ग में इस प्रकार विवाद करने लगा - जीवों की धर्म से जय होती है कि पाप से ? सो हे मित्र ! मुझे कह, तब सुमित्र बोला कि, धर्म ही से जय है, पाप से नहीं। ___ क्योंकि-पूर्णद्रव्य, निर्मलकुल, अखंडआज्ञा का, ऐश्वर्य, अभंगुर बल, सुरसंपदा और शिवपद ये निश्चय करके जीवों को धर्म ही से मिलते हैं । जो पाप से बुद्धि, ऋद्धि, सिद्धि होती हो तो यहां कोई जड़, दरिद्र वा असिद्ध रहे ही नहीं।
चंद्रमा हरिण को रखता ( रक्षा करता ) है तथापि मृग लांछन कहलाता है और सिंह हरिणों को. मारता है तो भी मृगनाथ कहलाता है, अतएव पाप ही से जय है, ऐसा वसुमित्र । बोला। ___ इस प्रकार दोनों जने विवाद करते हुए सर्व लोगों के सन्मुख शर्त की प्रतिज्ञा करके किसी बिलकुल धर्म से अजान ग्राम में गये । वहां अत्यंत मत्सर से भरे हुए वसुमित्र ने देहाती लोगों को अपना पक्ष पूछा, तो वे बोले कि अधर्म ही से जय है।
वे बोले कि-जो दूसरों को ठगने में तत्पर करुणाहीन व सदैव असत्य बोलने वाला होता है, वे ही देखो, प्रत्यक्ष अतुल लक्ष्मी सम्पन्न हैं।