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भावश्रावक का पांचवा लक्षण गुरुशुश्र ूपक का स्वरूप १५७
से रोकने का उपदेश नहीं किया जाता " इस प्रकार निन्दा करने से वे प्राणी कोटि- जन्म पर्यन्त भी बोधि को नहीं पा सकते, जिससे यह अबोध बीज कहलाता है और उस अबोध बीज से निन्दा करने वाले का संसार बढ़ता है । इतना ही नहीं, किन्तु उसके निमित्त-भूत श्रावक का भी संसार बढ़ता है।
क्योंकि कहा है कि- जो पुरुष अनजान में भी शासन की लघुता करावे, वह अन्य प्राणियों को उस प्रकार मिध्यात्व का हेतु होकर उसके समान ही संसार का कारण कर्म-संचय करने को समर्थ हो जाता है कि जो कर्म, विपाक में दारुण, घोर और सर्व अनर्थ का बढ़ाने वाला हो जाता है ।
ऋजुव्यवहार रूप भाव- श्रावक का चौथा लक्षण कहा. अब गुरु-शुश्र ूषक रूप पांचवां लक्षण कहते हैं
सेवा कारणेण य संपायणभावओ गुरुजणस्स | सुमणं कुणंतो गुरुसुस्पूओ हवड़ चउहा ||४९॥
मूल का अर्थ - गुरुजन की सेवा से, दूसरों को उसमें प्रवृत्त करने से, औषधादिक देने से तथा चित्त के भाव से गुरु की शुश्रूषा करता हुआ चार प्रकार से गुरु शुभ्र षक होता है ।
टीका का अर्थ - सेवा से याने पर्युपासना द्वारा, कारण से याने दूसरों को उसमें प्रवृत्त करने से, संपादन से याने गुरु को औषधादिक देने से और भाव से याने चित्त के बहुमान से गुरुजन की याने आराध्य वर्ग को, यहां यद्यपि माता पिता भी गुरु माने जाते हैं तो भी यहां धर्म के प्रस्ताव से आचार्य आदि ही प्रस्तुत हैं अतः उन्हीं के उद्द ेश्य से गुरु शुश्रूषक की व्याख्या करना.