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सम्प्रति राजा का दृष्टांत
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नगर नारियां रास रमने लगीं ।
श्रद्धावंत भव्य जन कदम कदम पर लकड़ियों से रास खेलने लगे, चारों ओर सुश्राविकाएँ महामङ्गल गाने लगीं। चतुर रसिकों से आगे खींचा जाता हुआ रथ फिरने लगा, प्रत्येक बाजार व प्रत्येक घर में उसकी पूजा होने लगी । उसके पीछे सकल संघ के साथ सुहस्ति आचार्य फिरने लगे, इस भांति चलते-चलते वह रथ राजमहल के द्वार पर आ पहुँचा ।
अब राजा मानों अपने कर्म विवर में फिरते हों, इस भांति उस संघ में सुहस्तिसूरि को देख कर संतुष्ट हो विचार करने लगा
मैं सोचता हूँ कि इन दयानिधान मुनींद्र को मैंने पूर्व कहीं देखा है, क्योंकि - ये मेरे मन रूप सागर को चन्द्रमा के समान प्रफुल्लित कर रहे हैं। यह सोचते-सोचते उसे जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे वह सर्व कार्य छोड़कर गुरु के चरणों में प्रणाम करने को आया ।
प्रणाम के अनन्तर वह गुरु को पूछने लगा कि - जिन-धर्म का क्या फल है ? सूरि बोले कि - वह स्वर्ग और मोक्ष का फल देता है । तब राजा पुनः बोला कि - अव्यक्त सामायिक का क्या फल है ? मुनींद्र बोले कि - राज्य आदि । तब संतुष्ट हो राजा कहने लगा कि - हे भगवन् ! मुझे पहिचानते हो ? तब आचार्य उत्तम श्रुत के शुद्ध उपयोग से उसे पहिचान कर कहने लगे कि - हे राजन् ! तू पूर्व भव में मेरा शिष्य था ।
ज्ञान
सो इस प्रकार कि - एक समय दुष्काल के समय हम महागिरि आचार्य के साथ मासकल्प से विचरते हुए कौशांबी नगरी में आये। वहां बस्ती तंग होने से व मुनि बहुत से होने से श्री आचाये महागिरि और हम पृथक-पृथक बस्ती में रहे ।