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विजयकुमार का दृष्टांत
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तुमे कुणालापुरी से मेरा अपुत्र पति यहां लाया है । इसलिये तू अपना यह सौभाग्य, रूप तथा यौवन मेरे साथ संगम करके सफल कर, ताकि मैं तुफे सर्व विद्याएं दू । जिससे तू इस सुरम्य नगरी में विद्याधरों का चक्रवर्ती होकर, राज्य-श्री का भोग करेगा, और मेरे साथ विषयसुख भी भोगेगा।
इस प्रकार उसका कान के सुख को हरने के लिये वननिपात समान वचन सुनकर विजयकुमार मन में इस भांति विचार करने लगा-इसने अभी तक मुझे पुत्रवत् पालन करके ऐसा अकार्य विचारा, अतः स्त्री के स्वभाव को धिक्कार हो।
तो भी इस समय इसके पास से विद्याएँ ले लू', यह सोच उसने कहा कि-मुझे विद्याएं दे । उसने मतिहीन हो उसको विद्याएँ देदी, तब कुमार कहने लगा कि-हे माता ! अभी तक मैंने तुझे मातृवत् माना है अतः मैं तुझे प्रणाम करता हूँ।
तथा तेरे प्रसाद से मैंने विद्याए जानी हैं, अतएव आज से तो तू विशेषकर मेरी गुरु समान है । अतएव हे माता! यह दुश्चिन्त्य असंभव दुश्चरित जब तक पिता न जाने तब तक तू इस पाप से अलग होजा।
कुमार का इस प्रकार निश्चय जानकर वह ऋद्ध होकर बोली कि-हे पुत्र ! तू कामासक्त होकर मुझे प्रार्थना मत कर, कारण कि तू पुत्र है।
अथवा इसमें तेरा दोष नहीं है, जाति और रूप ही तेरे आवरण हैं, तू कोई अकुलीन है, जिनको जन्म न दिया वे पुत्र हो ही कैसे सकते हैं ? ऐसे उसके वचन से अति विस्मित हो कुमार ने सोचा कि-कामासक्त स्त्री कपट से क्या नहीं करती ?