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इन्द्रिय संयम पर
तब कुछ देर तक कुमार उसके पीछे दौड़ा तो उसने - उसे वैताढ्य की सुरम्य नगरी में आया हुआ देखा । ___तब वह विचार करने लगा कि-वह तो मेरा यह पिता ही है, यह है वह घर और यह है वह माता, ओह ! यह तो मैं ने बुरा किया कि-जो पिता को तीव्र प्रहार किया।
इसने तो अतिस्वच्छ और वत्सल मन से बाल्यावस्था ही से पुत्र के समान मेरा लालन-पालन किया है, तथा उत्तम कलाएँ सिखाई है।
अतः यह तो सदैव मुझे गुरु के समान पूजनीय है, अतएव इसके साथ लड़कर मैंने इसे जीता, सो मैंने अपनी आत्मा को कलंकित किया है।
इस प्रकार खिन्न मुख से कुमार सोचने लगा, इतने में उस विद्याधरेश ने उसको कहा कि-हे वत्स ! तू क्यों खेद करता है ? क्योंकि प्रभु के कार्य के लिये बाप के साथ भा लड़ना यह क्षत्रियों का कम है, साथ ही तुझे कुछ ज्ञात नहीं था कि यह मेरा पिता है।
तुझे समझाने के लिये मैं तेरे पास आया था वहां रते और रंभा समान अत्यन्त रूपवान् शीलवती को देखी । जिससे इंद्रियवश हो मैंने तेरा रूप धरकर उसको अपहरण की, तो भी पृथ्वी में तू'ने अद्वितीय वीर होकर मुझे जीता है।
तथा मेरे परिजनों ने तेरा शील संबंधी सकल वृत्तान्त मुझे कहा है, और यह तेरी माता तुझ पर आसक्त होकर किस प्रकार क्र द्ध हुई, सो भी कहा है-अतः इंद्रियवश होने