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अर्थरूप तीसरा भेद का स्वरूप
तब वह चिन्तित हो विचार करने लगा कि - मेरा सब पराक्रम निष्फल हो गया, क्योंकि - जिसके लिये मैंने पिता से सख्त लड़ाई की, वह मुग्धा यहां मिलती नहीं, और अब जयवर्म राजा का भी किस भांति संतोष किया जाय। वैसे ही मेरी प्रतिज्ञा का भंग होने से मेरी वीरता भी नष्ट हो गई है।
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अतः अब मैं चारित्र लेकर ही अपनी प्रतिज्ञा सत्य करूगा, यह सोचकर उसने सुस्थितगुरु के पास दीक्षा ग्रहण की ।
इधर शीलवती को वहां जहाज से आया हुआ चन्द्रसेठ का पुत्र सिंहलद्वीप में ले गया, वहां वह जिन-धर्म का पालन करती रही। वह एक समय सुदर्शना के साथ भरोंच में आकर दुष्कर तप करके ईशान देवलोक में पहुँची ।
विजयकुमार मुनि भी कर्म संतान का क्षय कर उत्तम ज्ञान, दर्शन, आनन्द और वीर्य प्राप्त करके मोक्ष को गये ।
इस प्रकार विजयकुमार ने ज्ञानरूप लगाम के द्वारा इंद्रियरूप चपल घोड़े को बराबर रोक कर आपदा रहित उदार परम पद पाया । अतः हे भव्यलोकों ! तुम उन पर जय के लिये प्रयत्न करो ।
इस प्रकार विजयकुमार की कथा पूर्ण हुई ।
सत्रह भेदों में इन्द्रिय रूप दूसरा भेद कहा । अब अर्थ - रूप तीसरे भेद का वर्णन करते हैं ।
सय लागत्थनिमित्त - प्रायास किले सकारणमसारं ।
नाऊण धणं धीमं न हु लुग्म तंमि तणुर्यमि ॥ ६२ ॥