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भावश्रावक का छट्ठा लक्षण प्रबचनकुशलका स्वरूप
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हेतु जहाज समान, आपके चरणों को नमस्कार हो । चन्द्र, अंकुश, मीन, कलश, वन तथा कमल आदि लक्षणों से युक्त आपके चरणों को नमस्कार हो।
इस प्रकार स्तुति कर वह गुरु से गृहि-धर्म स्वीकार कर, घर आ, अपने राज्य में सर्वत्र रथ यात्राएँ करवाने लगा व उसने जैसे रंकपन स्मरण कर सत्रागार (दान शालाए) खुलवाये और जिस प्रकार अनार्यों को प्रतिबोधित किया सो निशीथ-चूर्णि से जान लेना चाहिये।
चिरकाल तक जिन-शासन को प्रभावना करके गुरु की शुश्रषा करता हुआ वह संप्रति राजा वैमानिक देवता हुआ। इस प्रकार धर्म-विचाराश्रयी संप्रति राजा का उदार वृत्तान्त है। इसलिये हे भव्य जनों! तुम सब मान छोड़कर सद्गुरु में बहुमान धारण करो। इस भांति संप्रति महाराज का निदर्शन है।
इस प्रकार गुरुशुश्रूषक लक्षण का भाव रूप चौथा भेद कहा. उसके कहने से भाव श्रावक का पांचवां लक्षण पूर्ण हुआ । अब प्रवचन कुशल रूप छठा लक्षण कहते हैं. सुचे अत्थे-य तह। उस्सग्ग-क्वाय भाव-ववहारे ।
जो कुसलत्तं पत्ता पत्रयणकुसलो तओ छद्धा ॥५२॥
मूल का अर्थ- सूत्र में, अर्थ में, वैसे ही उत्सर्ग में, अपवाद में, भाव में और व्यवहार में जो कुशलता रखता हो, वह इन छः प्रकारों से प्रवचन-कुशल माना जाता है।
टोका का अर्थ- यहां उत्कृष्ट वाक्य सो प्रवचन वा आगम कहलाता है, वह सूत्रादिक भेद से छः प्रकार का है। अतः उसके अन्तर्गत स्थित कुशलता भी छः प्रकार की है और उसके सम्बन्ध